पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/५००

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चन्द्रश्रिङ्गोन्नत्यधिकारः ४८३

पादचर्चा न क्रियतेऽतः सूच्यते यदनेन सितशृङ्गोन्नमनं कृष्णशृङ्गोन्नमनं चेति शृङ्गोन्नतिद्वयं साध्यते । कृष्णशृङ्गोन्नतिः स्फुटा मनुष्यैर्नोपलक्ष्यत इति विचार्य शुक्लशृङ्गोन्नतिरैव​​​ साधिता, 'द्वितीयतृतीययोरपि चरणयोर्ब्रह्म- गुप्तादिभिः कृष्णशृङ्गोन्नतिरानीता सा मम न संमता । न हि नरैः कृष्ण- शृङ्गोन्नतिः स्पष्टोपलक्ष्यते’ इत्युक्तं च । स्वेष्टौ रविशीतगू (स्वेष्टकालिकौ रवि- चन्द्रौ) कृत्वा शरक्रान्त्यंशाः साध्या इत्यध्याहार्यम्. । सिद्धान्तशेखरे "सूर्यशीतकरपातविलग्नैरस्तकालजनितैः सितरश्मेः । स्वापमभ्रमचरादि- विलग्नातीतशेषघटिकाश्च विधेयाः" श्रीपतेरयं प्रकार आचार्योक्तानुरूप एवेति ।।४।।

अब शृङ्गोन्नतिकाल में सूर्यास्त से चन्द्रास्तपर्यन्त गतघटी और शेषघटी

               के साधन को कहते हैं

हि.भा- सूर्यास्तकाल में रवि, चन्द्र, चन्द्रपात और लग्न से चन्द्रकान्ति से और चन्द्र के उदयलग्न से उदयलग्न की गतघटी और शेषघटी 'ऊनस्य भोग्योऽधिक भुक्तयुक्तो मध्योदयाढ्य' इस विधि से साधन करना, सूर्यास्त के बाद जितनी घटी में चन्द्रास्त होता है वह गतघटी है, तथा सूर्यास्त से पहले जितनी घटी में चन्द्रास्त होता है वह एष्य घटी है, एवं पूर्वक्षितिज में सूर्योदय से गत और एष्य चन्द्रोदय घटी साधन करना। जिस दिन में सूर्यास्त के बाद कालांश घटी से अधिक घटी में चन्द्रास्त होता है तथा सूर्योदय से पहले कालांश घटी से अधिक घटी में चन्द्रोदय होता है उसी दिन चन्द्र दर्शन होने से श्रिङ्गोन्नति साधन करना । चन्द्रबिम्बार्धाल्प शुक्ल में शुक्लश्रिङ्गोन्नति होती है । इसलिये भास्कराचार्य ने 'मासान्तपादे प्रथमेऽथवेन्दोः' इससे प्रथम चरण और चतुर्थ चरण में श्रिङ्गोन्नति साधन किया है, द्वितीय चरण (पाद) और तृतीय चरण में चन्द्रबिम्बार्धाल्प कृष्ण होता है इसलिये वहाँ कृष्ण श्रिङ्गोन्नति होती है । यहां आचार्य पाद की चर्चा नहीं करते हैं इससे सूचित होता है कि आचार्य दोनों श्रिङ्गोन्नतियों (सितशृङ्गोन्नति और कृष्ण शृङ्गोन्नति) का साधन करते हैं। मनुष्यों को कृष्ण श्रिङ्गोन्नति स्फुट लक्षित नहीं होती है। यह सोचकर शुक्ल श्रिङ्गोन्नति का साधन किय है । ‘द्वितीय और तृतीय चरण में ब्रह्मगुप्त आदि आचार्यों ने कृष्ण श्रिङ्गोन्नति की है वह मेरे मत के विरूद्ध है । मनुष्य कृष्ण शृङ्गोन्नति को स्पष्ट नहीं देखते हैं, यह भास्करोक्ति है । सिद्धान्तशिखर में ‘सूर्यशीतकर- पातविलग्नैः’ इत्यादि संस्कृत भाष्य में लिखित श्रीपति का प्रकार आचार्योक्त के अनुरूप ही है इति ॥४॥

इदानीं चन्द्रस्य स्पष्टकान्तिज्यासाधनमाह

विक्षेपशश्यपक्रमधनुषोर्योगान्तरं समान्यदिशोः । तज्ज्येन्द्वयक्रमज्या स्वाहोरात्रार्षतो रविवत् ।

सु.भा-समान्यदिशोः विक्षेपशश्वपक्रमधनुषोः शशिशरापक्रमचापयोर्योगा