मध्यमाधिकारः ३५ करने से विदित हुआ । तथा चन्द्रबिम्बीयनतांश और प-विन्दूत्पन्न नतांश चापों से उस्पन्न खस्वस्तिक लग्नकोण जितने वेधगोल में होते हैं उतने ही भूगर्भगोल में भी, क्योंकि दोनों गोलों में धरातल एक ही है । अतः ग्रहों के दिगंशवश वह कोण का मान निकालना होगा तब भूगर्भगोल पृष्ठ पर जो त्रिभुज बना है उसमें त्रिज्या- गुणाद्धरणिकोटिगुणात्’ इत्यादि के विलोम से परिणत चन्द्रबिम्ब केन्द्र ष विन्दु- गतवृत्तीयाधार चापज्ञान हुआ । तथा वेधगोलीयशर, क्रान्तिवृत्तधरातलान्तर के ज्ञान से भूगर्भगोल में शरज्ञान (वेधगोनीय और भूगर्भगोलीय नाडी़वृत्तबरातलान्तर और वेधगोलीय कान्तिज्ञान से भूगर्भगोलोय कान्तिज्ञान के लिए जो युक्ति है उसी तरह की युक्ति शरज्ञान के लिए है), इस लिए चापजात्य युक्ति से भूगर्भगोलीय स्पष्टचन्द्र और ष बिन्दु के अन्तर संस्कारसंज्ञक चाप का ज्ञान हो जायगा । अन्तर=संस्कारचाप । अत: वेधगोलीयस्प चन्द्र +-संस्कारचाप=भूगर्भगोलीय स्प चन्द्र । अब संस्कार चाप की घन और ऋण की व्यवस्था दिखलाते हैं । परिभाषाएँ वेधगोलीयक्रान्तिवृत्त = इष्टक्रान्तिवृत्त । भूगर्भगोलीयक्रान्तिवृत्त=वास्तव- क्रान्तिवृत्त । बिम्बीय कर्णगोलीय क्रान्तिवृत्त=वांस्तवक्रान्तिवृत्त । 'प' रेखा बढ़कर वास्तव क्रान्तिवृत्त में जहां लगती है वहां र्ष बिन्दु है, चन्द्रबिम्ब केन्द्र से इष्ट क्रान्तिवृत्त घरातल का जो शरज्यालम्ब है उसका मूल बिन्दु=क्ष, यह बिन्दु वर्धित फ रेखा ही में होता है । फ-रेखा स्थानीय दृग्वृत्त धरातल में है । पूर्वकथित शरज्या बढ़कर या नहीं बढ़कर वास्तव कान्तिवृत्त धरातल के ऊपर लम्ब है। स्थानीय दृग्वृत्तधरा- तलनिष्ठ 'क्ष’ बिन्दु से वास्तव क्रान्तिवृत्त धरातल के ऊपर लम्ब करते हैं, उसका मूल बिन्दु स्थानीय दृग्वृत्त धरातल और वास्तव क्रान्तिवृत्त धरातल से उत्पन्न कोण जिस दिशा में अल्प है उसी दिशा में पतित होगा । अब भूगर्भ से बिम्बीय कर्णव्यासार्ध से जो गोल होता है उस पर विचार करते हैं । ष बिन्दुजनित दृग्वृत्त और वास्तवक्रान्तिवृत्त से उत्पन्न दृक्षेप चापाभिमुख कोण अल्प है, क्ष बिन्दु तो वास्तव कान्तिवृत्त धरातल और ऊर्ध्वाधर सूत्र के मध्य (बीच) में है क्योंकि फरेखा मध्य में है । इससे सिद्ध होता है कि दृक्षेप वृत्त से पूर्वकपाल में चन्द्र के रहने से रेखा से पश्चिम दिशा ही में लम्बमूल गिरेगा, क्योंकि स्थानीय दृग्वृत्त घरातल और क्रान्तिवृत्त धरातल की योगरेखा प-रेखा है । भूगर्भ से लम्बमूलगतरेखा ष बिन्दु से पश्चिम दिशा ही में क्रान्तिवृत्त में लगेगी वही बिन्दु भूगर्भाभिप्रायिक चन्द्र-स्थान है । त्रिज्यागोल में भी यही स्थिति है । पश्विम कपाल में भी इसी तरह विचार करना । इससे सिद्ध होता है कि वित्रिभ से चन्द्र के अल्प रहने से संस्कारचाप घन होता है अन्यथा ऋण होता है । इति ।।
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