चंन्द्रच्छायाधिकारः ५०३ अत्रोपपत्तिः उदयलग्नतुल्ये लग्ने पूर्वक्षितिजे चन्द्रस्योदयः । पश्चिमक्षितिजस्थे ग्रह बिम्बे पश्चिमक्षितिजक्रान्तिवृत्तयोः सम्पातबिन्दोरस्तलग्नसंज्ञोदयास्ताधिकारे आचार्येण कृतोऽतस्तदा सषड्भस्तलग्नं पूर्वेक्षितिजे लग्नं भवेत् । तस्मादिष्टलग्ने न्यूने उदयलग्नाच्चाधिके बिम्बं क्षितिजादुपरि भवेत्तेन तदा चन्द्रदर्शन भवेदेव। चन्द्रदर्शने सति तदीया छाया साध्या सिद्धान्तशेखरे श्रीपति “ऊनको यदि विल नतो भवेत् शुभ्रभानुरधिकोऽस्तलग्नतः। दृश्यते विहितदृग्विधिद्वयस्तप्रभा खलु विलोकने सति" रेवं कथितवान् । सिद्धान्तशिरोमणो भास्कराचार्येणा "निशीष्ट लग्नादुदयास्तलग्ने न्यूनाधिके यस्य खगः स दृश्यः" नेनचायक्तानुरूपमेवोक्त- मिति ।।३।। अब चन्द्र के दृश्यादृश्यस्व को कहते हैं हिआ. यदि पूर्वं क्षितिज और कान्तिवृत्त का सम्पात रूप तात्कालिक लग्न चन्द्र- दय लग्न से अधिक हो तथा छः राशि युक्त अस्त लग्न से न्यून हो तो चन्द्र दृश्य होते हैं, चन्द्रदर्शन होने से उनका छाया-साधन करना चाहिए इति ॥३॥ उपपत्ति उदय लग्न के तुल्ल लग्न के रहने से पूर्व क्षितिज में चन्द्र उदित होते हैं । पश्चिम क्षितिज में ग्रह चित्र के रहने से पश्चिम क्षितिज और क्रान्तिवृत्त के सम्पातबिन्दु को प्राचार्य ने उदयास्ताधिकार में अस्तलग्न संज्ञक कहा है इसलिये तब छः राखियुत अस्तलन क्षितिज में लग्न होता है। उस से इष्ट लग्न न्यून हो तथा उदय लग्न से अधिक हो तो बिम्ब क्षितिज से ऊपर होता है इसलिये तब चन्द्र दर्शन भी होता ही है, चन्द्र दर्शन होने से उसकी छाया का साधन करना समुचित है, सिवन्तशेखर में "ऊनको यदि बिलग्नतो भवेद स्यादि सं. उपपत्ति में लिखित श्लोक से श्रीपति ऐसे कहते हैं, सिद्धान्तशिरोमणि में भास्करा चायं ‘निशोष्ट लग्नोदयास्तलग्ने' इत्यादि से आचार्योक्तानुरूप ही कहते हैं इति ॥३॥ इदानं चन्द्रोन्नतकालसाधनमाह लग्नसममुदयलग्नं षङ्गृहयुक्तास्तमयलग्नसमम्। पूर्वापरयोः कृत्वा गतशेषाः स्वोदयैर्घटिकाः ४।। सु. मा--पूर्वापरयोः क्षितिजयोः क्रमेणोदयलग्नं लग्नसमं लग्नं च षट्सह युक्तास्तमयलग्नसमं कृत्वाऽर्थात् प्राक् क्षितिजे उदयलग्नभोग्यकालो लग्नभुक्तकालो
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