ग्रहयुत्थधिकारः ५३७ बुधशीघ्रोच और शुरुशीघ्रोच्च से जो ज्या (सपातमन्दस्पष्टग्रहमृगज्या, सपात बुधशोस्रो- अज्या, सपात शुक्रशघ्रोच्चज्या) हो उनको ग्रहगोलीय पठितशर (परमर) से गुणा कर स्थिरीभूत योत्र कर्ण से भाग देने से स्फुटशर (भगोलीयेष्टशर) होता है ॥१०॥ ग्रहगोल में क्रान्तिवृत और विमण्डल के सम्पात विन्दु पात संज्ञक हैं, पातस्यान में प्रह के रहने से शर (अहबिम्व केन्द्रोपरिंगत कदम्ब प्रोतवृत्त कान्तिवृत्त में जहां लगता है वह प्रह स्योन है, स्थान से विम्व केन्द्र तक) का प्रभाव होता है, पात स्थान से तीन राशि पर ग्रह के रहने से परमशर होता है, पातस्थान से मन्दस्पष्ट ग्रहपर्यन्त सपा मन्दस्पष्ट ग्रह है, पातस्थान से विश्व केन्द्रपर्यन्त विमण्डल में कर्णचाप, लिम्वकेन्द्रोपरिगत कदम्ब श्रोत वृत्त में स्थान ले विम्वकेन्द्रतक शर भुज, ग्रहस्थान से पातस्थान पर्यन्त (सपा तमन्दस्वष्टग्रहभुजांश) न्ति वृत्त में कोटि. इन तीनों कर्णभुज कोटिचापों से उत्पन्न चापजात्य में ऋन्ति वृत्त भर विमण्डल से उत्पन्न पातस्यान लग्नकोण=पाठपfठत परमशर, तव कोणनुपात से ग्रहगोलीय परमशज्या x सपातमन्दस्पर्भुज्या ग्रहगोलीयेष्टशरज्य। प्रगोलीय परमशर ४ सपातनन्दस्पगभूज्या स्वल्पान्तराज्याचापयोरभेदाह अङ्गोलीयेष्ठश यहां विमण्डलीय भुजांश रूप कर्णे विदित नहीं है, यान्तिवृत्तीय सपात मन्दस्पष्टग्रह भुजांश विदित है इसलिये शान्तिवृत्तीयसपातमन्दस्पष्टग्रहभुजज्या ही से प्राचीनाचाय ने जो इष्ट शरानयन किया हैं वह ठीक नहीं है, तब यदि शीघ्र कथं में ग्रह गोलीयेष्टशर पाते है तो त्रिज्य में क्या इस अनुपरत से भगोल में इष्टशर आता है, जैसे प्रहगो ऽष्टशर त्रि - _ग्रगोपरमशर ४ सपात मन्दस्पप्रमुज्या त्रि_ग्रगो परमशर ४ सप्तमदस्मत्प्रया त्रिXशीक श्रीक भगोलीयेष्टशर, यह भी भगोलीयेष्टशर ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वोक्तक्रेणीनुपात ठीक नहीं है। सिद्धान्त तत्व विवेक में ‘साधित स्फुटप्रह विमण्डल में आते हैं क्षमसाकर कहते हैं सो ठीक नहीं है, गणित से साधित स्फुटण्ह अन्तिवृत्त ही में प्रवे हैं क्योंकि मन् िवृत्त धरातल से कठिन ततस्र इगोस के कैटित प्रदेश खुसार (सीव्र प्रतिवृक्षरूप) ततः ग्रहगोल में होता है उसी(फटिल प्रदेश रूप शीत्रि प्रति वृत्त) में फ़्लादि की व्यवस्था हो सकती है । विमण्डल में साधिक स्फुट गहों को स्वीकार करने से फलदि की व्यवस्था नहीं हो वकी है क्योंकि प्रत्येक गोल में विमण्डल भरातल भिन्न भिन्न है, इसलिये सावित स्फुटप्रह झान्ति वृत्तय ही होते हैं यह प्राचीनों का कथन युक्तियुक्त है, कमलाकर का कथन यहां पर ठीक नहीं है। सूर्यसिद्धान्त में "स्वपातनाद् ग्रहाचीवा, इत्यादि सं० उपपति में लिखित
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