मध्यमाधिकारः ३६ गोल केन्द्र) से चन्द्र को वेध करने से वेधगोल में जहाँ उपलब्ध होते हैं उनके ऊपर वेध गोलीय कदम्ब प्रोतवृत्त करने से वह कदम्ब प्रोतवृत वेधगोलीय क्रान्तिवृत्त में जहां लगता है। वहां से चन्द्रविम्बकेन्द्र तक कदम्ब श्रोतवृत्त में चन्द्र का शरांश है, तब वेधगोलीय शरज्या त्रि वेधगोलव्या ३ -चन्द्रगोलीयशरज्या । इसमें गन्तिवृत्त धरातलान्तर संस्कार करने से जो होता है उसके वश से भगोलीय शरज्ञान होगा ही, इस तरह प्रत्येक दिन वेब से भगोलीय शरज्या का ज्ञान करना ।१३।। इदानीं ग्रहयुगस्य परिंभाषां करोति कालक्षदेशयगाद् भूयो ग्रहमन्दशोध्रपातानम् । कल्पेन यतो योगस्ततः स्फुटं प्रहयुगं कल्पः ॥१४॥ वा. भा.-कालयोगः चैत्रसितादेरुदयाद् भानोः। ऋक्षयोगः पौष्णाश्विनांत रस्थैः सह ग्रहैः। देशयोगो लङ्कायामिति । तेनायमर्थः, कालभैदेशयोगाद् भूय एतावत्या सामग्रया पुनरपि ग्रहशीघ्रमन्दपातानां यतो यस्मात्कल्पे योगो भवति तस्मात् कल्प एव ग्रहयुगं स्फुटम् । वि. भा.-ग्रहमन्दशीघ्रपातांनी ( ग्रहाणां मन्दोच्चानां शीघ्रोच्चानां पातानां च ) काल“देशयोगात् ( कालयोगरचैत्रसितादेरुदयाद्भानोः) ऋक्ष (नक्षत्र)योगः पूर्वकथितैः पौष्णश्विन्यन्तस्थैः सह ग्रहैः देशयोगः(लङ्कायाम् ) एतस्मात्कालक्षदेश योगाद्, भूयः (वारं वारं) यतः (यस्मात्कारणात्) कल्पेन (कल्पवर्षप्रमाणेन)योगो भवेन्नहि तत्पूर्वं पश्चाद्वा तत: (तस्मात्कारणात् )कल्पो ग्रहयुगमिति स्फुटमर्थाद्यदैकदा सृष्टयारम्भे कादौ ग्रहमन्दशीघ्रपतनां कालदेशयोगो भवति ततोऽनन्तरं पुनः कल्पान्ते (द्वितीयसृष्ट्यारम्भे ) तादृशयोगः कल्पवर्षेर्भवत्यतः कल्प एव ग्रहयुगमिति ।१४।। अब ग्रहयुग की परिभाषा करते हैं । हि- भा.-ग्रहों, मन्दोच्चों, शघ्रोच्चों पर पातों के कालसम्बन्ध से योग हो (पहले सृष्ट्यारम्भ में जो कहा गया है चैत्रसितादेरुदयाद्भानोः) ऋक्ष (नक्षत्र) योग (पूर्वकथित भचक्रचलनसूत्रक श्लोक में पौषणाश्विन्यन्तस्थैः सह ग्रहैः) देशयोग (पूर्वकथित काल प्रवृत्ति सूचक श्लोक में) लङ्कायाम्’ इस तरह की स्थिति जब (कल्पादि में) हो उसके बाद फिर उन सब ग्रहमन्दशीघ्रपातों) के वह योग कल्पवयं में होता है इसलिए इल्प ही स्फुट प्रह युग होता है । श्रौल् ग्रहादि के कालयोग, ऋक्षयोग और देशयोग एकबार जब (कल्पारम्भ में) होता है फिर उन सब के उस तरह के योग कल्पवर्षों में (कल्पान्त में ) होता है उससे पहले या पीछे नहीं होता है इसलिए कल्पादि से कल्पान्त पर्यन्त एक कनवर्षे ही ग्रहयुग होता है । इति ।।१४।।
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