अद्युत्यधिकारः ५४३ प्रति लम्ब स्पको+स्पकों प्र. द्वि =१--- छ, तथा लम्ब के साथ परमाल्प कर्ण और १–स्पको. स्पको लम् परभाषिक करों से उपन्ल कोणद्वय के योग (परमास्पकर्ण और परमाधिक फणं से उपग्न कोण) स्पर्ष रेखाः स्पको,+स्पको, १-स्पको, • स्पको, प्र+द्वि Sripathy K N (सम्भाषणम्) परन्तु. प्रढि=pxद्वि०: तथा प्र+ढि > प्र+e.c. :: ५. दि लम्ब ० + ० लम्ब क्योंकि प्र+द्वि=माघारवृत्तव्या अत: परमापकणं तथा परमाधिक ऋणं से उत्पन्न कोण की स्पर्शरेस प्रत्येक सूर्योज्या प्रान्तयगत कर्णरेखाढ्य से उत्पन्न कोणस्पर्श रेखाओं से अधिक सिद्ध हुई, चाप करने से परमापक्षं और परमाघिक कर्ण से उत्पन्न कोण सव कोणों की अपेक्षा अधिक सिद्ध हुआ। पूर्व लिखित भगोल विमण्डल वनोपयोगी सिद्धान्त समूहों को देखने से अधोलिखित विषय सिद्ध होता है। कोणाचं कारिणी रेखा से दोनों तरफ को जो समान कोणोंत्पादक रेखदय होता है वह आधार में जहां लगता है उन दोनों स्थान से उसकी योग रेखा के ऊपर जो जो लम्बरूपिणी दो दो पूर्णज्या होती है उनके प्रप्रगत को जो दो अणु होते हैं उनसे उत्पन्न कोणद्वय बराबर होता है, तथा इन दोनों कोणों के गोल में जो चापात्मक मान होते हैं उनमें तुल्पतुल्य चापद्वप के विरुद्धाग्नगमिवाप परमाल्पफणं भर परमाधिक कुएँ से उत्पन्न कोण के चाप से अघत होता है । और यह केन्द्रगत भी होता है इससे इस ' का मधंरक मापद्वयपासरू हुन, उनमें एक . (परमाल्पकएँ और परमाधिक ऋणं) इनसे उत्पन्नः और दूसरा उसके ऊपर लम्बरूप परमचापइससे बह भी सिद्ध होता है कि इन चाय के खम्पात से दोनों तरफ तुल्यान्तर पर (परमाल्पकणं मर परमाझि कर्घ) इससे उत्पन्न चाप के ऊपर सम्बरूप चापद्वय व पाली में जहां लगते हैं जहां से बराबर होते हैं इससे पूर्व लक्ष अटितवक्र ‘मॅपृष्ठाकृतिबक' सिद्ध हुआ. ॥१०॥
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