५५१ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते विश्लेषलिप्ता उदयास्तलग्नयोः प्रजायते तघटिकादिकं फलम्। तन्निन्ना . उदयास्तलग्नविवरोद्भूताः कला भाजिताः॥ स्वस्त्राभिघंटिकाभिराप्तकलिका संयुक्तमाद्याह्वयम्। हीन' वाऽस्त विलग्नतोऽधिकमथो हीन तदेव ग्रहः। स्यादेवं समलिप्तिकौ खलु युतौ व्योमौकसः स्वोदयात् ॥ तौ रात्रि लग्नाद्भवतो विहीनौ षड्भाधिकाञ्चेदधिकौ तदानीम् । दृश्यौ भवेतां स्फुटमन्यथा तु समुद्गतावप्यनवेक्षणीयो ।" इति समप्रोतीययुतेर्गतैष्यत्वेऽवगते तद्यतिसमयज्ञानार्थमृणधनसंस्कार प्रकारश्रीपयुक्त आचार्योक्तप्रकारानुरूप एवेति ।१३१४१५-१६१७१८ । अव सम प्रोतीय युति को कहते हैं। हि- भा.-समलिप्तिक (समान कला वाले) दो ग्रहों (एक कदम्ब श्रोतवृत्त में जब युति होती है तब तात्कालिक दोनों प्रह समलिप्तिक होते हैं क्योंकि क्रान्तिवृत्त में दोनों के स्थान एक ही हैं) का स्वोदयलग्न भर प्रस्तलग्न उदयास्ताधिकारोक्त विधि से साधन करना चाहिए, उसके बांद स्वदेशीय राश्युदय से स्वोदयलग्न और छः राशियुत प्रह के स्वास्त लग्न को जोड़ क अर्थात् स्वोदय लग्न के भोग्यकाल, छ: राशियुत ग्रह के प्रस्तलग्न के भुक्तकाल और मध्योदय (स्वोदय लग्न और छ: राशियुत अह के अस्तलग्न के मध्य में वर्तमान राशियों के उदयमान) के जोड़ने से दोनों ग्रहों की दिन मान घटी होती है, इससे समकलामक दो ग्रहों के दिनमान साघन आचार्यों ने कहे हैं, समलिप्तिक दो ग्रहों के उदय लग्नों में जो राश्यादि से अल्प है वह यदि अन्यग्रह के छ राशियुत अस्तलग्न से भी अल्प हो तो युति एष्य कहनी चाहिए, उदयलग्न अन्यग्रह के छ राशियुत अस्तलग्न से अधिक हो तो युतिगत कहनी चाहिए इनसेआत्रायं ने युति के गतैष्यत्व को (कब युति गत होती हैं और कब एष्य होती है) कहा है ॥१४॥ यदि पारिभाषिक अस्तलग्न स्वोदय लगन से अल्प हो तो वक्ष्यमाण (आगे कहे जाने वाला) संस्कार फल ऋण होता है, यदि अधिक हो तो संस्कार फल घन होता है, स्वोदय लग्न और स्वास्तलग्न की अन्तर कला को पूर्व साधित स्वरूप दिनमान घटी से पृथक्पृथक्। भाग देने से जो दो फल (लठ्ष) होते हैं उन्हें कहे हुए लक्षण के अनुसार धन और ऋण समझना, इससे सम प्रोतीय युति के गतैष्यत्व विदित होने से युति समय ज्ञान के लिए ऋण घन संस्कार आचार्य ने फहे हैं ॥१५॥ पूर्वोक्त दोनों फलों के ऋण वा धन रहने से दोनों के अन्तर से स्वोदय लग्न की प्रन्तर कला को भाग देने से जो लब्ध घटी हो उससे दृयुति गत वा एय होती है । यदि
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