पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/५६९

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

५५२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ग्रहबिम्बोदय काल में उदयलग्न और ग्रहबिम्बास्त काल में अस्त लग्न है इसलिए ग्रह की दिनमान घटी में उदय लग्न का चलन उदयलग्न और अस्तलग्न के अन्तर के बराबर होता है । उसके बाद जैसे अल्प होता है वैसे अस्त लग्न का न्यूनाधिक्य मानना अर्थात् उदयलग्न और अस्तलग्न के मध्य में एक में से दूसरे को घटाने से जहां अल्प शेष रहे बहीं दूसरे की अल्पता होती है। जैसे यदि ग्रस्त लग्न तुलान्त =७ है, उदयलग्न-वृषान्त, तो ७ -२=५, २-७ =७ इसलिए उदयलग्न को अल्प और अस्तलग्न को अधिक सयझना चाहिए । अब अनुपात करते हैं यदि प्रहदिनमान घटी में उसके उदय लग्न की गति (उदयलग्न और अस्त लग्न के अन्तर तुल्य) पाते हैं तब एक घटी में क्या इससे एक रूप बेग से एक घटी में स्वस्व उदयलग्न गति आती है, प्रज पुनः अनुपात करते हैं यदि दोनों उदयलग्न गति के अन्तर में एक घटी पाते हैं तो स्वस्व उदयलग्न के अन्तर में क्या इससे समप्रोतीय युतिकाल में गत घटी व एष्य घटी आती है । उन घटियों में युतिकाल में स्वोदय लग्न का जितना चलन होता है ग्रहद्वय में उसके संस्कार करने से सम प्रोतीय समलिप्तिक्र ग्रहद्वय होते हैं । इस तरह उदयलग्न के चलन समान वेग में स्वीकार कर अनुपात से स्थूल युतिकाल होता है। आयन दृक्कर्म पर आक्षदृक्कर्म के प्रतिक्षण में विलक्षण होने के कारण उदयलग्न गति के अतुल्यवेगव से विजातीय उदयलग्न गति का अन्तर उसके योग के बराबर होता है ‘धनर्णयोगयोरन्तरमेव योगः’ इससे स्पष्ट है । रात्रि में इष्ट लग्न से अल्प और छः राशि युत इष्ट लग्न से जो अधिक होता है वह क्षितिज के ऊपर होने के कारण दृश्य होता है, ग्रह के अल्प शर रहने तथा क्रान्ति वृत्तीय स्थान के आसन्ल में उदयलग्न के रहने से ऐसा होता है, नहीं तो स्वेष्टलग्न से जिसका उदयलग्न अल्प होता है और प्रस्तलग्न अधिक होता है वही दृश्य होता है। (सिद्धान्त शेखर में)। “'स्वयमस्तलग्नं हृदयाख्य लग्नादृणाख्यमूनं धनमन्यथा स्यात्" यहां से लेकर "दृश्यो भवेतां स्फुटमन्यथा तु समुद्गतावप्यनवेक्षणीयौ” यहाँ तक सं० उपपत्ति में लिखित श्लोकों से श्रीपति ने समप्रोतीय युति के गर्तष्यत्व जानकर उसके युति समय ज्ञानार्थं ऋण-धन संस्कार के लिए आचार्योक्त प्रकार के अनुरूप ही कहा है इति ।।१३-१४-१५१६-१७१८॥ इदानीं ग्रहयुतौ विशेषमाह. एवं मानैक्यार्धादधिके मध्यान्तरे न युतिश्रृंहयोः। स्थित्यर्धविमर्ददले होने तारग्रहबुयुतौ ॥ १६ ॥ लम्बनमकं ग्रहणवदसकृत् स्वावनतिलिप्तिकास्पष्टौ । तात्कालिकबिक्षौ तदन्तरैक्यं समान्यदिशोः ॥ २० ॥ विक्षपो मध्यान्तर मूध्वस्य छदको ग्रहोऽधस्थः । मानेयार्धादधिके नातिस्पष्टा स्फुटोक्तिरतः ॥२१॥