५५६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अत्रोपपत्तिः भूकेन्द्राद् भूपृष्ठाच्च ग्रहगते रेखे नेये ताभ्यामुत्पन्न : कोणो दृग्लम्वनम् । भूकेन्द्राद्गृहं यावद् ग्रहकर्णी : भूपृष्टाद् ग्रहं यावत्पृष्ठीयकर्ण :, भूकेन्द्राद् भूपृष्ठं यावद् भूव्यासार्धम्, एभिर्मु जैरुत्पन्नत्रिभुजे पृष्ठोयकर्णभूव्यासावुभ्यामुत्पन्न कोण :=१८० - पृष्ठोयनतांश, कोणज्या कोणोनभावू शययोस्तुल्यत्वात् ज्या (१८०–पृष्ठीयनतश)= पृष्ठीयनतशज्या= पृदृज्या, तदोक्त त्रिभुजे ऽ नुपातेन दृग्लम्वनज्या = ग्रह पृदृज्या भूव्या३, एवमन्यग्नहस्यापि । ग्रहक ग्रपृदृज्य भूव्या ३ =ढंग्लम्बनया, एतच्च पयोरन्तरं लम्बनसम्वन्धिन्य : कलाः ग्रहक स्यु :। ग्रहदृग्ज्या, दृक्श्रेय दृग्लम्बनज्या वशेन ग्रहयो : ग्रंथ हैं पृथङ् नती साध्ये । घट्यादिलम्बनज्ञानार्थं यदि ग्रहगत्यन्तरकलाभि : षष्टि घटिका लभ्यन्ते तदा लम्वन फलाभि :कि समगच्छन्ति लम्वनघटय । ग्रहयोर्मध्ये यथैको वक्री, अपरश्च मार्गी तदा गतियोगेनानुपांतेन घल्यामकं लम्वनं समागच्छतीति । युतिकाल में लम्वनानयन में विशेष कहते हैं । 'प्राद्या ग्राहक लम्वनाख्य कलिक’ इत्यादि ऊपर लिखे इलोक देखिये । हेि. भा.-पुत्यर्थं समीलिप्तिक दोनों ग्रहों में प्रध: स्थित ग्रह छादक होते हैं, ऊपर- स्थित ग्रह छाद्य होते हैं, उन दोनों के पृथक्-पृथक् स्व-स्व पृष्ठीय द्वग्यावश से जो लम्बन कलाएँ होती हैं उनके अन्तर लम्बन सम्बन्धिनो कला होती है, एवं पृथक्-पृथक् नति होती है, पूर्ववत् आयो हुई लम्बन कला को साठ के गुण कर समलिप्तिक ग्रहद्वय के गत्यन्तर (यदि समलिप्तिक दोनों ग्रह मार्ग गामी हो वा वकगामी हो तब) से भाग देने से घट्यादिक लम्बन होता है, यदि समलिप्तिक दोनों ग्रहों में एक वक्र हो और दूसरा मार्ग हो तो गति पोग से भाग देने से घट्यादिक लम्बन होता है इति । उपपत्ति भूकेन्द्र से और भूपृष्ठ स्थान से ग्रह केन्द्रगत रेखा लाने से दोनों रेखाओं से उत्पन्न कोण दृतम्बन है, भूकेन्द्र से ग्रह केन्द्रगत रेखा=-प्रहकर्ण, पृष्ठ स्थान से प्रहकेन्द्रगतरेखा= पृष्ठेय ऋणं, भूकेन्द्र से भूपृष्ठ स्थान पर्यन्त रेख= भूव्यासाधं । इन तीनों रेखामों से उत्पन्न त्रिभुज में पृष्ठीय करों भर भूव्यासार्ध से उत्पन्न कोण =१८०–पृष्ठीय नतांश कोणज्या और फेयेन भट्टलज्या बराबर होती है इसलिए ज्या (१८०–पृष्ठीय नतांश)=पृष्ठीय
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