५६० आह्मस्फुटसिद्धान्ते प्रव युतिकाल में नति साधन पुरःसर स्फुटशर साधन को कहते हैं । हि. भ-सूर्यग्रहणोक्त विधिवत् प्रहशङ्कुचाप को अपने शर के साथ संस्कार करने ये जो होता है उस की ज्या स्पष्टशङ्कु होती है, उस से पूर्ववत् दृग्ज्या (त्रिज्यावर्गों में स्पष्ट शइवर्ग को घटा कर मूल लेने से) होती है, इसतरह घायी हुई दृग्ज्या को परमनति कला से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने से जो फल होता है वह नतिकला होती है, इस नति और शर के योग और अन्तर करने से स्फुट बार होता है, इस तरह आनीत ग्रहद्वय का स्पष्ट शरान्तर ग्रहान्तर (समलिप्तिक दोनों ग्रहों के दक्षिणोत्तरान्तर) होता है इति। सूर्यग्रहण में रवि और चन्द्र की नति लाई गई है, यहां समलिप्तिक दोनों प्रहों (छाद्य और छादक की तरह कल्पित रवि और चन्द्र) की लाई गई है । इति । इदानीं ग्रहयुतौ स्थित्यर्धविमर्दधदिसाधनार्थम् । तत्स्फुटेषु सहितोनितात् स्वकान्मानयोगदलतः स्थितेर्दलम् । तत्रमार्गोंदलपूर्वमुक्तवत् साधयेन्निजजवैवयभेदतः ॥ वि. भा. - स्वकान्मानयोगदलत: (ग्राह्यग्राहकविवयोर्योगार्धान्) तत् स्फुटेषु सहितोनितात् (तस्य ग्राहकस्य स्पष्टशरेण युतोनितात्) स्थितेर्दलं भवत्यर्थं न्मानैक्यार्ध स्फुटशरयोर्योगान्तरघातात्' स्थित्यधं भवति, विम्बमानैक्यार्घ वर्गा च्छरवणं विशोध्य तन्मूलं ग्राहकमार्गखण्डं तत्सम्बन्धिकालो ग्रहणे यथा समानोत स्तथैवानुक्तया नेतव्य इति, (विमर्दाद्यादिकं) साधयेदिति ।। सर्वमिदं सिद्धान्त- शेखरोक्तं वैशद्यार्थी लिखितम् । (१) मानैक्यार्धस्फुटशरयोर्योगान्तरघातान्मूलं स्थित्यर्ध भवितु मर्हति, इलोकोक्तथा तत्स्थिस्यधं न भवतीति सिद्धान्तग्रन्थनिष्णातानां स्फुट मेवेति मुकुन्द मिश्रः । अव प्रहयुत में स्थित्यर्ध और विमर्दाघदि साधन के लिये कहते हैं । ‘तत्स्फुटेषु सहितोनितात् स्वकान्मानयोगदलतःस्थितेर्दलम्' ( इत्यादि ऊपर लिखे । इलक को देखिये । हेि. भा.-ग्राह्यविम्ल और ग्राहक विस्ब के योगध' (सातैयाध') में ग्राहक के स्फुटशर को जोड़ने और घटाने से स्थित्यच होता है, विम्बमानैक्यार्धा' वर्ग को घटा कर मूल होने से प्राहक आ खण्ड होता है तत्सम्बन्धिकाल ग्रहण में जैसे लाया गया है वैसे यहां भी
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