ग्रहयुत्यधिकारः ५६५
वासरेण भक्त स्वदिनेनोदितमत्र जायते चेत्। कथमपिच परोदितेन तुल्यं युति- विधिरेष विधीयते तदानीम्” ऽनेन श्रोपतिनाऽऽचार्योक्तानुरूपमेवोक्तमिति विज्ञौर्बोध्यम् ॥२श।
अव कव युति होती है इसको कहते हैं ।
दि.भा– एकग्रह की गतघटी को अन्य ग्रह की दिनमान घटी से गुणाकर एक ग्रह के दिन प्रमाण से भाग देने से जो फल हो तत्तुल्य यदि अन्य ग्रह की गत घट हो तो दोनों ग्रहों की कदम्ब प्रोतीय युति कहनी चाहिये इति ॥२५।।
उपपत्ति
यदि एक ग्रह के दिन प्रमाण में उसकी दिनगत घटी पाते हैं तो अन्य ग्रह के दिन प्रमाण में क्या इससे अन्य ग्रह की दिनगत घटी पूर्वोक्ति के अनुसार होती है, तब ही उन दोनों ग्रहों की युति कहना उचित है अन्यथा नहीं यह बात पूर्वकथित युति विचार से स्फुट है । सिद्धान्त शेखर में "गुणितमपरवासरेण भक्तं स्वदिनोदितमत्र जायते चेत्" इत्यादि सं० उपपत्ति में लिखित श्लोक से श्रीपति ने आचार्योत के अनुरूप ही कहा है इति ॥२५॥
इदानीमध्यायोपसंहारमाह
विक्षेपमानसमकलदिनघटिका स्वोदयास्तलग्नाद्यौ:। षड् विशत्यार्याणां नवमो प्रहमेलनाध्यायः ॥२६।
सुि. भा–समकलौ समलिप्तौ ग्रहौ। शेषं स्पष्टार्थम् ।
मधुसूदनसूनुनोदितो यस्तिलक : श्रीपृथुनेह जिष्णुजोत्क । हृदि तं विनिधाय नूतनोऽयं रचितो योगविधौ सुधाकरेण ।
इति श्रीकृपालुदत्तसूनुसुधाकरद्विवेदिविरचिते ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तनुतनतिलके ग्रहयुत्यधिकारो नवमः ॥ ६ ॥ वि. भा.-विक्षेप (शर) मानसाधनम्, समकल (समलिप्तिक) ग्रहयोर्दिन- मानसाधनं तद्दिनगतघटिकासाधनं च तयोर्गेहयोरुदयास्तलग्नयोः साधनमेतदा- द्यैविषयैः सम्वलितौ नवमो ग्रहमेलनाध्यायः (ग्रहयुत्यधिकारः) आर्याणां षड् विंशत्या (षड् विशतिसंख्यकंरायश्लोकैः) गत इति ॥२६॥ इति श्री ब्रह्मगुप्तविरचितब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ग्रहयुत्थविकारो नवमः ॥८॥