पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/६४

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मध्यमाधिकारः ४७ (यमान्त) है उसके बाद रवि और चन्द्र अपनी-प्रपनी गति से चलने लगे, चन्द्र गति की अधिकता के कारण जिस स्थान (अमान्त विन्दु) से चले थे वहां जाकर फिर रवि के साथ योग करते हैं तब एक चान्द्रमास ( प्रथमामान्त से द्वितीयामन्त तक ) { पूरा हो जाता है। यहाँ पर चन्द्रगति = १ चन्द्रभगण +रविगति हुई क्योंकि जिस स्थान से ( प्रथमामान्तविन्दु ) चले थे वहाँ फिर जाने से चन्द्र की एक भगण पूति होती है इसलिए चन्द्रगति-रविगति=चन्द्रभगण, तब अनुपात करते हैं यदि एक चन्द्रभगणतुल्य रविचन्द्र गत्यन्तर में एक चान्द्रमास पाते हैं तो कल्पीय रविचन्द्रगत्यन्तर ( कल्पीय रविचन्द्रभगणान्तर ) में क्या इस अनुपात से कल्पचन्द्र भगण और कल्परविभगण के अन्तर तुल्य ही कल्पचान्द्रमस सिद्ध हुआ इससे ‘भगणान्तरं रवीन्द्वोः शशिमासाः यह उपपन्न हुआ । अधिमासकी उपपत्ति कल्पचान्द्रमास में कल्प सौरमास को घटाने से कल्पाधिमास क्यों होता है इसके लिए विचार करते हैं । n एक सावन दिन में चन्द्र मध्यमगति ७०.३५ दोनों के = ७३११२७ रविमध्यमगति=५e८' अन्तर= १२°११’२७’ ’=चमग-रमग तथा चमग-रमग=१२°= १ तिथि इसलिए सावन दिन पूति (सूरा) काल से पहले ही चान्द्रदिन पूति सिद्ध हुई । अतः चान्द्रदिनसवनदि सौरदिन, क्योंकि जब रवि की मध्यमगति साठ कला के बराबर होती है तब सौर दिन पूति होती है और ५e'८” इतनी रवि मध्यमगति में सावन दिन पूति होती है इसलिए दिन संख्या से सौ दिसं <चांदिसं अतः कल्पचन्द्र मास-—कल्पसौर मास=कल्पाधिमास, तथा कल्पचांदि--कसवनद=क्षयदि= कल्पाव मदि इससे शशिमासा रविमासोना-यहाँ से ‘शशिसवनदिवgान्तरमवमानि' यहाँ तक उपपन्न हुआ । २४ ॥ इदानीं सावनदिननक्षत्रदिनमानववर्षांपैतृदिनदिव्यदिनान्याह सावनमुदयादुदयं भानां च“ नृवत्सरोऽर्कब्दः। पितृदिवसाः शशिमासा दिव्यानि दिनानि रविभगणाः ॥२५॥ चा. भा.-शशिमासा दिव्यानि दिनानि रविभगणः। तिथिः शशांकदिनं तिथिरेव चन्द्रदिनम् । दिनग्रहणेनाहोरात्रोगृह्यते सर्वेष्वेव मानेषु, तेन यावदेव तिथि भोगप्रमाणं तावदेव चन्द्रमासमानेन दिनप्रमाणं भवती3ि, तैस्त्रिशता शशिमासा इत्यादि योज्यम् । एतच्च भगणान्तरं रवीन्द्वोः शशिमासा इत्येनेनैव सिद्धेः स्पष्टीकरणायोच्यते । सावनमृदयादुदयमित्यनेनैव सिद्धेः चन्द्रनक्षत्रभागावधिजस्य नाक्षत्रमानस्य व्युदासार्थमाचार्येणोक्तम् । भानां चाश्नमिति । तथा नक्षत्रसावन