५२ ब्राह्मस्फुट सिद्धान्ते पितर लोग बसते हैं ऐसा पुराणादियों में कहा गया है, इसी के अवलम्वन से विचार करते हैं । चन्द्र के ऊ वंपृष्ठ (ऊध्र्वभाग) से कितना भाग ग्रहण करना चाहिए । इष्टिस्थान (भूकेन्द्र)से चन्द्रबिम्ब की अनेक स्पर्शरेखा करने से प्रत्येक स्पर्शबिन्दुजनित चन्द्रबिम्बप्रदेश धृत्त कार होता है; चन्द्रबिम्ब में इसको घटाने से जो शेष रहता है वही चन्द्र का ऊर्घव भाग है । वहां पितर लोग वास करते हैं, यह पुगणःदि वचनों से विदित होता है । भूकेन्द्र से चन्द्रकेन्द्रगत रेखा पितरों के त्रिज्यागोलीय याम्योत्तरवृत्त में जहां लगती है वही पितरों के त्रिज्यागोल में परिणत चन्द्र है और पितरों का उर्ध्वं खस्वस्तिक भी है । वहां जब रवि प्रायेंगे तो रवि और चन्द्र के एक स्थान में रहने के कारण अमान्तकाल होगा और वहीं परिणत चन्द्र पितरों का ऊर्घ्व खस्वस्तिक हैं और वहीं रवि भी है इसलिए ऊर्ध्व खस्वस्तिक में रवि के जाने से दोप्रहर (दिनार्ध वा मध्याङ्ग) होता है अतः सिद्ध हुआ कि अमान्तकाल में पितरों का दिनार्धकाल होता है । फिर दूसरा अमान्तकाल जब होग तो पितरों के वहां दूसरा दिनार्धकाल होगा, अत: प्रथम अमान्त से द्वितीय प्रमान्त तक (एक चान्द्रमास) प्रथम दिनार्ध से द्वितीय दिनार्ध तक काल के बराबर हुआ । परन्तु प्रथम दिनार्ध से द्वितीय दिनार्धं तक काल प्रथम सूर्योदय स द्वितीय सूर्योदय तक काल (अहोरात्र) के बराबर होता है इसलिए पितरों का अहोगश्र एक चान्द्र मास के बराबर सिद्ध हुआ। परन्तु यहां अमान्त- काल में पितरों का मध्याह्नकाल स्वीकार कर विचार किया गया है, यह ठीक नहीं है। सिद्धान्त शिरोमणि में भास्कराचार्य ने भी ‘दर्शे यतोऽस्माद् द्युदलं तदैषाम्’ इससे अमान्तकाल ही में पितरों का दिनार्घकाल स्वीकार किया है, पितरों के याम्योत्तरवृत्त में अर्थाच्चन्द्रोपरिगत ध्रुवप्रोत्तवृत्त में जब रवि आते हैं तभी उनका दिनार्धकाल होता है, चन्द्रोपरिगतकदम्ब- प्रोतवृत्त ही यदि पितरों का याम्योत्तरवृत्त हो तभी अमान्तक़ल और पितृमध्याह्लनकाल में अभेदत्व होगा । लेकिन ऐसी स्थिति चन्द्रशराभाव स्थान में और चन्द्र की सत्ता में भी चन्द्र के मिथुनान्त में रहने से होती है । यथा भूकेन्द्र से चन्द्रवेन्द्र रेखा पितृगोल में जहाँ लगती है वहीं यदि रविकेन्द्र होगा तभी उसी अमान्त बिन्दु में चन्द्र के शराभाव के कागणा मध्याह्नकाल और अमान्तकाल में अभेदस्व होगा । और मिथुनान्त में विमण्डल में चन्द्र के रहने से उसी अयन प्रोतवृत्त और क्रान्तिवृत्त के योगबिन्दु में जब रवि होंगे तभी अमन्तकाल और पितृमघ्याह्नकाल में अभेदत्व होता है । इन दोनों स्थानों से भिन्न स्थल में अमान्तबिन्दु से अर्थात् चन्द्रोपरिगतकदम्षप्रोत्तवृत्त और क्रांतिवृत्त के येोगविन्दुस्य रविबिन्दु से पितरों के याम्योत्तरवृत्त पूर्व या पश्चम में होता है । वहां अमान्तकाल से जितने काल में पितृयाम्योत्तरवृत्त में रवि होता है वह काल आयनदृक्कर्मासुतुल्य है, उस काल (आयनदृक्कर्मासु) करके यदि अमान्तकाल था संस्कार करते हैं तब पितृम्यो- त्तरवृत्त में रवि होता है वही वास्तव पितृमध्यान्हकाल है । यहां (क) क्षेत्र देखिए । रन==आयनदृक्कर्मकलासु । अतः अमान्तकाल + आयन दृक्कर्मासु=वास्तव पितृदिनार्ध, इसी के वश से राज्यधं भी समझना चाहिए । पितरों के ऊध्वं खस्त्रस्तिक में (परिणत चन्द्रबिन्दु में) रवि के रहने से अमान्तकाल में उनका दिनार्ध होता है । परिणत चन्द्र से छह राशि अन्तर पर अधः खस्वस्तिक में रवि
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