मध्यमाधिकारः ७५ जहां ज्या (ध्र+वि)=त्रि होती है, वहीं पर सदयान्तर का परमत्व होता है, यह सिद्ध हुआ । गोलसन्वि ( नाडीवृत्त और यान्तिवृत्त के सम्पात ) में भुजांश और विषुवांश के अभाव से उन दोनों के अन्तररूप उदयान्तर का अभाव होता है तथा श्रयन सन्धि में मध्यमार्क के रहने से भुजांश और विषुवांश के नवत्यंश के बराबर होने से दोनों के अन्तररूप उदयान्तर का अभाव होता है, यह सिद्ध हुआ । अब परमोदयान्तरकालीन भुजांश और विषुवांश के साघन करते हैं । पहले सिद्ध हुआ है कि जब भुजांश और विषुवांश की योगज्या त्रिज्या के बराबर होती है अर्थात् भुजांश और विषुवांश का योग नवत्यंश के बराबर होता है तब उदयान्तर का परमत्व होत है, इसलिए परमोदयास्तर में भुजांश+विषुवांश=६०, और उस अवस्था में भुजांश और विषुवांश का अन्तर=परमोदयान्तर, तब संक्रमण गणित से ६०+परमोदयान्तर परमोदयान्तर = ४५ + — C= परमोदयान्तर कालीन भजांश ६०-परमोदयान्तर परमोदयान्तर तथा ४५ = परमोदयान्तर कालीन विषुवांश । अयवा धृ= भुव । प्र= क्रान्तिवृत्त में मध्यमाकं, गो-गोलसन्धि, गोम=भुजांचा, गोन=विषुवांश नाडीवृत्त में गोग्र भुजांश तुल्य गोप काटकर पण वृत्त बना दीजिये, गो बिन्दु से पम्र के ऊपर गोच लम्ब वृत्त कर दीजिये, गोन +गोप=विषुवांश+भुतांश यह जब नवत्यंश के बराबर होता है तब ही उदयान्तर क परमत्व होता है, इसलिए उदयान्तर के परमश्व में गोन +गोप=विषुवांश शभुजांश=६० अनप चापीय जारयत्रिभुज में पनकोटि=&० अत: पग्रकणऽपि==k०, तदा ग्रच = चप=४५ ( अगोपचापीय त्रिभुज के समद्विबाहुकत्व के कारण ). <प्रचगो=&०, <ग्रगोप _१८० जिनांश <प्रगोन=जिनांश <ग्रगोप= १८०-जिनांश, <ग्नगोच =ग=E° = - जिनांश = &०-२=जिनांशाधे को तब गोचपचापीय जात्यत्रिभुज में अनुपात से त्रि xज्या ४५ K जि*=ज्या गोप=परमोदयान्तर कालीन भुजया, इसके चाप करने से परमो- दयान्तर कालीन भुजांश हुआ, कोज्या =अजिनांशबँकोटिज्या, इससे संस्कृतोपपत्तिस्य “त्रिज्येषु वेदांशगुणेन ताडिता' इत्यादि सूत्र उपपन्न हुआ। यहाँ संस्कृतोपपत्तिस्थ (क) क्षेत्र देखिये ।
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