११९४ ब्राह्म स्फुटसिद्धान्ते ३-३=*= ३ (१- १) फलं शून्यं न भवतीति प्रदश्र्यते । यथा .३ एतावता शून्ये ६-६ ० ६ (१-१) ६ न्यूनाधिकत्वं स्पष्टमेव दृग्गोचरीभूतं भवत्यर्थात्सर्वाणि शून्यानि न समानानि भवन्ति तस्मात् शून्येन शून्यं भक्त फलं शून्यं न भवितुमर्हति, प्राचार्येण यदस्य मानं शून्यं कथ्यते तत्समीचीनं नास्ति । समयोर्द्धयोधतस्य वर्ग इत्यभिधानात् धनयोघतस्य ऋणयोघतस्य च धनत्वात् वर्गस्य सर्वथैव धनत्वमेव । ऋणं धनं वा शून्येन विभक्तं तच्छेदं भवतीत्याचार्योक्तौ िवचार्यते। यथा - अत्र र मानं यथा यथाऽल्पं भवेत्तथा तथा लब्धिरधिका स्यात्, र मानस्य परमाल्पत्वेऽर्थाच्छून्यसमत्वे लब्धिः परमाधिकाऽनन्तसमा भवेदत एव बीजगणिते - खहरराशिसम्बन्धे तथा - 'अस्मिन् विकारः खहरे न राशावपि प्रविष्टेष्वपि निः सृतेषु । वहुष्वपि स्याल्लयः सृष्टिकालेऽनन्तेऽच्युते भूतगणेषु यद्वत्, भास्करेण कथितम् । अनेन खहरराशे रविकारिता दृष्टान्तप्रसङ्गन भगवतोऽनन्तस्याच्युतस्य साम्यं प्रतिपादयति । अथ ऋणात्मक राशिसम्बन्धे किञ्चिद्विचार्यते । ०>-य , * = अनन्त, -य>अनन्ताधिक । इति ऋणा ऽत्मकराशेवैचित्र्यमाश्चर्यकारकमस्ति, यतः शून्यादल्पो भूत्वाऽनन्ततोऽपि महान् भवतीति ॥३४-३५॥ अब भाग हार के लिये कहते हैं। हेि. भा- धन को धन से वा ऋण को ऋण से भाग देने से फल धन होता है । शून्य को शून्य से भाग देने से फल शून्य होता है। धन को ऋण से भाग देने से फल ऋण होता है। धन से ऋण को भाग देने से फल ऋण होता है। ऋण वा धन को शून्य से भाग देने से उस ऋण वा धन में शून्य छेद (हर) होता है। शून्य को ऋण वा धन से भाग देने से फल शून्य होता है। ऋण और धन का वर्ग धन होता है। शून्य का वर्ग शून्य होता है। शून्य का पद (मूल) भी शून्य होता है इति ॥ गुणनोपपत्ति वैषरीत्य से भागहारोपपत्ति भी सुगम ही है। शून्य को शून्य से भाग देने से फल शून्य नहीं होता है। जैसे ३-३= ० --३ (१-१-३ इससे शून्यों में ६-६ ० ६ (१- १) ६ न्यूनाधिक्य स्पष्ट ही देखने में आता है। अर्थात्, सब शून्य बराबर नहीं होते हैं अतः शून्य से
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