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११९६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तें

य+र-(य-र)=य+र-य+र=२ र श्रर्धितः=योग-श्रन्तर/२=र इदं संक्रमरगसंझकं गरिगतम्। तथा राश्योर्वर्गान्तरम् = य^२-र्^२ राश्यन्तरेरग य-र भक्त य^२-र^२/य-र=य+र ततः पूर्ववत्। योग+श्रन्तर/२=य। योग+श्रन्तर/२=र। इदं विषमकमं नाम गणितम्। एतावताऽऽचार्योक्तमुपपन्नम् । लीलावत्यां 'योगोऽन्तरेणोनयुतोऽर्धितस्तौ राशी स्मृतं संक्रमरगाख्य' मिति तथा वर्गान्तरं राशिवियोगभक्तं योगस्ततः प्रोक्तवदेव राशी' इती च भास्करोक्तमाचार्योक्तानुरूपमेवास्ति ॥३६॥

                श्रब संक्रमरग श्रौर विषम कमं कहते है ।
    हि.भा.- दो राशीयों के योग में दोनों राशीयों के श्रन्तर को युत श्रोर हीन कर दो  से भाग देने से दोनों राशीयों का प्रमारग होता है इसका नाम संक्रमरग है । वा दोनों राशीयों के वर्गान्तर को राश्यन्तर से भाग देकर जो लब्धि हो उसमें राश्यन्तर को युत श्रौर हीनकर दो से भाग देने से राशीद्वय का मान होता है इसका नाम विषम कमं है ॥
                            उपपत्ति ।
    प्रथम राशि=य । द्वितीय रशि=र, प्ररा+द्विरा=य+र=योग । प्ररा-द्विरा=य-र=श्रन्तर,

योग+श्रन्तर=य+र+य-र=२य . . योग+श्रन्तर/२=य । योग--श्रन्तर=य+र-(य-र)=य+र- य+र+र+२र । श्रतः योग-श्रन्तर/२=र । यह संक्रमरग गरिगत है । वा राशिद्वय का वर्गान्तर=य^२-र^२, राश्यन्तर (य-र) से भाग देने से य^२-र^२/य-र = य+र=योग तब पूर्ववत्यो योग+श्रन्तर/२=य । योग-श्रन्तर/२=र,इसका नाम विषमकप्रं गरिगत है । इससे न्न्प्राचार्योक्त उपपन्न हुआ । लीलावती में 'योगोऽन्तरेरगोनयुत' इत्यादि से तथा 'वर्गान्तरं राशिवियोगभक्त' इत्यादि से भास्कराचायं ने श्राचार्याक्त के श्रनुरूप ही कहा है इति ॥३६॥

         इदानीं समद्विबाहुविभुजे लम्बग्नानादकररगीगतौ भुजावाह ।
            कररगी लम्बस्तत्कृतिरिष्ठह्यतेष्टोनसंयुताऽल्पा मूः ।
            श्वधिको द्विह्यतो बाहुः संक्षेप्यो यद्वधो वर्गः ॥३७॥
       सु.भा.-यो लम्बस्तस्य कररगी संग्न्या ग्नेया । तस्याः करण्याः कृतिरिष्टेन हृता। 

इष्टोनसंयुता कार्या श्वनयोर्योऽल्पा सा समद्विबाहोर्भूः कल्प्या । यश्चाधिकः स दिहृतः समद्वि- बाहोर्बाहुर्ग्नेयः । 'संक्षेप्यो यद्वधो वर्गः' इत्यस्याग्र' सम्बन्धः ।