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धनर्णशून्यानां सङ्कलनम्
श्रत्रोपपतिः। समद्विबाहो य: शिर: कोरगादाघारोपरि लम्बस्तद्वशाज्जात्यद्वयं समानमुत्पद्यते। तत्र लम्बः कोटिः। आघाराघं भ्रुज:। समद्विबाहोर्बाहुः करर्गाः।भ्रुजकरर्गान्तरमिष्टं प्रकल्प्य तद्वर्गान्तरात् कोटिवर्गाद्विषमकर्मरगाऽनन्तरप्र्तिपदितेन द्विगुरगाभुजो भूः। करर्गो बाहुश्चाकररगीगत श्रानीत हति॥ ३७॥
वि.भा.-समद्विबाहो शिर: कोणदाधारोपरि यो लम्ब: सा कररगी संन्यका न्येया, तस्या वर्ग इष्टेन भक्तः, कार्यो श्रनयोयार्याऽल्पा सा समद्विबाहुत्रिभुजस्य भू: कल्पनीया। योऽधिक: स द्वाभ्यां भक्तः समद्विबाहुत्रिभुजस्य् भुजो न्येय:।' सक्षेप्यो यद्वघोवर्ग्स्' इत्य्स्याग्रे सम्बन्ध:।
श्रत्रोपपति:।
अ क ग समद्विबाहु त्रिभुजम्। श्र् शिर: कोण बिन्दुत: क ग श्राघारोपरि लम्ब:= श्र र एतल्लम्ववशेन श्रकर , श्रगर जात्य्त्रिभ्रुजद्वयं तुल्य्ं समुत्पघते, श्रर लम्ब: कोटि:, कर ग्राधराघं भुज:। श्रक= कर्ण:। श्रत्र भुजकरर्गायोर्वर्गान्तरं कोटिवर्गमिष्टं प्रकल्प्य वर्गान्तरं राशिवियोगभक्तमित्यादिना करर्गा-भुज/करर्गा-भुज=कोटि/करगां-भुजा=इ/करर्गा-भु = कर्ण+ भुज तत: करगांभुजयोर्योगान्तराभ्यां संक्रमरागारिगातेन भुजाकरर्गा भवेत्। भ्रुजो द्विगुणितस्त्दा भूर्भवेत्। करर्गा भ्रुजश्चाकररगीगतः समागत इति ॥३७॥
श्रब समाद्विबाहु त्रिभुज में लम्बण्यान से श्रकररगीगत भुजद्वय को कहते हें।
हि.भा. -सम द्विबाहु में शिर.कोगा से श्राघार के ऊपर को लम्ब होता है वह कररगी संन्यक हे। उस के वर्ग को इष्ट से भाग देकर जो लब्धि हो उस में इष्ट को हीन ओर युत करना चाहिये। इन दोनों में जो श्रल्प है उसको समद्विबाहु त्रिभुज की भू कल्पना करना। भाषिक जो हे उस को दो से भाग देने से जो हो वह समद्विबाहु का भुज होता है इति ॥
उपपति।
यहां संस्क्रुतोपपति में लिखित (१) क्षेष को देखिये। श्रकग समद्विबाहुक त्रिभुज है। श्र शिरः कोरगाबिन्दु से कग श्राषार के ऊपर लम्ब= भर इस लम्ब के वश से श्रकर, श्रगर दो तुल्यः जात्म त्रिभुज उत्पन्न होता है । श्रर लम्ब= कोटि,कर श्राघाराषं=भुज,अक=करर्गा यहां भुज ओर करर्गा के वर्गान्तर कोटि (लम्ब) वर्ग को इष्ट कल्पना कर 'वर्गान्तरं राशि वियोग भक्त' इत्यादि से करगां-भुज/करगां-भु=कोटि/कर्गा-भु= इ/ करगां-भु= क+भु तव करगां