पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/१११

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                            ब्राह्मस्पुटसिद्धान्ते

वास्ति। परन्तु यदि हरे धनकरणी भवेत्तदाऽऽचार्याक्तश्रीपत्युक्तभास्करोक्ता 'हरे यवदेकंव करसी स्यात्' नां व्यभिचारो भवेदिति||३९||

            श्रब करगी भागहार श्रोर वर्ग को कहते है ।
  हि मा - हरे मे जो कोइ इष्ट करगी हो उसको ॠरग मानकर भाज्य श्रोर हर को गुरा देना चहिये।सम्भव रहने से गुरिगत भाज्य में ओर गुरिगत हर में , दो दो कररगी के योग साधन करना पुनः उपयुक्त क्रिया के श्रनुसार क्रिया करनी चहिये। इस तरह बार वार तब तक क्रिया करनी चाहिए जब तक हर में एक ही कररगी हो। तब् भाज्य को भाजकगत एक कररगी से भाग देने से फल होता है। वर्गं की परिभाषा कहते है समान दो श्रङ्कों का घात उसका वर्ग कहलाता है॥
                               उपर्पात्त।
  भाज्य श्रोर भाजक को सामान श्रङ्क से गुरगा कर यदी भाग दिया जाय तो लब्धि ज्यों की त्यों रहती है। झ्मर्यात् लब्धि में किसी तरह का विकार नहीं होता है। इसलिये भाजक गत कररिगयों में एक को व्यस्त (उल्टा) धन,ॠरगा कल्पना कर उस भाजक से यदी भाज्य झ्मौर भाजक को गुरगा करते है तब नवीन भाजक में योगान्तर धात के वर्गान्तर के समान होने के काररग एक कररगी न्युन होगी। पुनाः उसी तरह क्रिया करने से पिर भी नवीन भाजक में एक कररगी न्युन होगी। एवं श्रसक्रुत्(बार-बार) करने से हर में एक ही कररगी होगी , इस से व्लाचार्योत्त उपपन्त हुश्रा। सिद्धान्तशेखर में 'छेदे करण्याः सममीप्सिताया' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोकों से श्रीपति ने तथा दीजगरिगत में 'धनरगाता व्यत्ययमीप्सिताया' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से भास्कराचायं ने भी श्राचार्योत्त्क के श्रनुरुप ही कहा है। परन्तु भाजक धनकररगी रहेगी तब 'यावध्दरे येकंव कररगी भवेत्' इसका व्यभिचार होगा इती॥३९॥
                     इदानीं कररगीमूलानयनार्यमाह।
           इष्टकरण्यूनाया रुपकृतेः पदयुतोनरुपाध्रे।
           प्रयमं रुपाण्यन्यत्ततो ततो द्वितीयं करण्यसकृत्॥४०॥
        सु भा - रुपकृतेः कि विशिष्टकरण्यूनायाः। इष्टा यैका तया वेष्टयोर्द्वयोर्यो रुपवद्योगस्तोन वेष्टानामनेकासां यो रुपवद्योगस्तोनोनाया यत्पदं तेन रुपारिग पृयक् युतोनितानि तदर्धे च कार्ये। तत्र प्रथममर्धाद्योगाधं रुपारिग कल्प्यानि। ततोऽन्यदन्तरार्ध द्वितीयं मूलस्योका कररगी भवती। एवमसकृन्मूलानयनं कार्यम्।
     श्रत्रोपपत्तिः। 'वर्गे करप्या यदि वा करन्योः' इत्यादि भास्करसूत्रस्य या भहिप्पण्यामुपपत्तिस्तया स्पुटा। तत्रान्ये बहवो विरोषारच निरीक्षरगीयाः॥४०॥