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भारतीय ज्योतिषियों में आर्यभट ही सब से पहले दिन और रात्रि के कारणस्वरूप पृथिवी के आवर्तन को कहते हैं। जैसे गीतिकापाद के प्रथम श्लोक में एक महायुग (४३२००००० ) में भूमि के १५८२२३७५०० भगण होते हैं। पहले इसको कह कर दृष्टान्त द्वारा भूभ्रमण को निम्नलिखित उक्ति से दृढ़ करते हैं।
- अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत् ।
- अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लङ्कायाम् ॥
परन्तु यहाँ विचित्रता देखने में आती है कि आर्यभटीय टीकाकार परमेश्वर ने इस श्लोक की व्याख्या के समय- "भूमेः प्राग्गमनं नक्षत्राणां गत्यभावश्चेच्छन्ति केचित्तन्मिथ्याज्ञानवशादुत्पन्नां प्रत्यग्गमनप्रतीतिमङ्गीकृत्य भूमेः प्राग्गतिरभिधीयते । परमार्थत्तस्तु स्थिरैव भूमिः" - कहा है। अर्थात् कोई-कोई पृथिवी के पूर्वाभिमुख चलन और नक्षत्रों के गत्यभाव (अर्थात् नक्षत्रों की गति नहीं है) कहते हैं वह मिथ्या अज्ञानवश पश्चिमाभिमुख चलन-की प्रतीति स्वीकार कर पृथिवी की पूर्वाभिमुख गति को कहते हैं। वस्तुतः पृथिवी स्थिर ही है।
- उदयास्तमयनिमित्तं नित्यं प्रवहेण वायुना क्षिप्तः ।
- लङ्कासमपश्चिमगो भपञ्जरः स ग्रहो भ्रमति ॥
इससे स्वयं आर्यभटाचार्य भी भू भ्रमण को अस्वीकार करते हैं। आर्यभटाचार्य के मन में यह निश्चय नहीं था कि पृथिवी चलती है या नहीं ! ऐसा उनके लेख से प्रतीत होता है । अस्तु ।
‘ब्रह्माह्वय श्रीधरपद्मनाभबीजानि यस्मादति विस्तृतानि' अपने बीजगणित में भास्कराचार्य की इस उक्ति से मालूम होता है कि ब्रह्मगुप्त का बहुत बड़ा बीजगणित का ग्रन्थ था, परन्तु वह ग्रन्थ आज प्राप्य नहीं है।
श्रीपति द्वारा द्वारा अनुकरण : ब्रह्मगुप्त ही औरों की अपेक्षा श्रीपति का श्रेष्ठतर आदर्श है। ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त और सिद्धान्तशेखर की पर्यालोचना से ज्ञात होता है कि ब्रह्मगुप्त रचित सार्थक आर्याओं (इस नाम का श्लोक ) का ही ब्रह्मगुप्त का श्रीपति ने बड़े-बड़े छन्दों में अनुवाद किया है । वस्तुतः ब्रह्मगुप्तोक्त ग्रहगणित को ही सत्य परन्तु दुरूह समझ कर श्रीपति ने उसे अपनी सुन्दर रचना द्वारा सुगमतर ग्रन्थान्तर (सिद्धान्तशेखर) के रूप में हमारे सन्मुख रखा । इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है । ग्रन्थ रचना के विषय में लल्लाचार्य ही श्रीपति के विशेष रूप से श्रेष्ठ आदर्श है। जो विषय ब्रह्मगुप्त ने नहीं कहा है वह लल्लाचार्य ने कह दिया है । उन सभी विषयों को उसी प्रकार श्लोका-