कल्प्यते चतु: क्षेपे कनिष्ठ्म् = क । ज्येष्ठम् = ज्ये, तद 'इष्टवर्गह्यत: क्षेपे'
इतयादिना इष्टम् द्वयं प्रकल्प्य रूपक्षेपे कनिष्ठम् = क.ज्ये/२, ज्येष्ठम्= ज्ये/२ तथा
प्र.क^२ + ४ = ज्ये^२ समसशोधनेन् प्र . क^२ = ज्ये^२----४ अत: प्र = ज्ये^२ - ४/ क^२, क्/२,
ज्ये/२ आभ्यां तुल्यभावनया रूपक्षेपे कनिष्ठम् = क.ज्ये/२ , ज्येष्ठम् = ज्ये^२-२/२
आभ्यां क्/२ , ज्ये/२ एताभ्यां भावनया रूपक्षेपे कनिष्टम् = क(ज्ये^२ - १)/२
ज्येष्ठम् = क( ज्ये^२ -१)/२, ज्येष्ठम् = ज्ये(ज्ये^२-३)/२ एथनाचार्यौक्तमुपपत्रम्
॥६७॥
अब प्वर क्षेप के कनिष्ठ् और ज्येष्ट से रूप क्षेप में कनिष्ट और ज्येष्ठ के आनयन को कहते है।
हि. मा. ----- चर क्षेप में से जो ज्येष्ठ है उसके वर्ग में से तीन घटाकर दो से भाग देने
से जो फम हो उसके ज्येष्ट से गुरा करने से रूपक्षेप में ज्येष्ट होता है। ज्येष्ट वनं में एक
घटाकर दो से भाग देने से जो फल होता है उसके कनिष्ठ् से गुरा करने से रूपक्षेप में
कनिष्ठ् होता है इति ॥
उपपत्त्ति।
कल्पना करते है चार क्षेप ।में कनिष्ठ = क । ज्येष्ठ = ज्ये, तब ' इष्तवगंहत:
क्षेप' इत्यदि भास्करोक्त प्रकार से दो इष्ट कल्पना करने से रूपक्षेप में कनिष्ठ = क/२, ज्येष्ठ
= ज्ये/, वगं प्रक्रुति लक्षरा से प्र। क^२+४= ज्ये^२ समशोधन से प्र. क^२= ज्ये^२ --- ४ अथ:
प्र = ज्ये^२ ---४ / क^२ , क/२ , ज्ये/२ इसकि तुल्य भावना से रूपक्षेप में कनिष्ठ = क.ज्ये/२ , ज्येष्ठ
= ज्ये^२-२/२, इसको क/२, ज्ये/२ इसके साथ भावना से रूपक्षेप में कनिष्ठ = क(ज्ये^२-१)/२
ज्येष्ठ = ज्ये(ज्ये^२-३)/२ इससे आचार्यौक्त उपपन्न हुआ इति ॥६७॥