१२४४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते प्र. क'~४=ज्ये' समयोजनेन प्र. क८ ज्ये२+४ अतः ज्ये२+४ =प्र। 'इष्टवर्ग ज्यै+२ ज्येष्ठम्= =------ समास भावनया हृतक्षेप' इत्यादिनेष्टम् =२ प्रकल्प्य ऋणात्मकरूपक्षेपे कनिष्ठम्= के, ज्येष्ठम् आभ्यां तुल्यभावनया रूपक्षेपे कनिष्ठस्=, क. ज्ये आभ्यां पुनः समासभावनया रूपक्षेपे कनिष्ठम् _क. ज्ये (ज्ये' +२), ज्येष्ठम् ज्ये+४ ज्ये+२ क. ज्ये ज्ये२+२ आभ्यां पूवंसाधिताभ्यां रूपक्षेपे कनिष्ठम्= क. ज्ये (ज्ये'+४ ज्ये' +३) =क. ज्ये. (ज्ये'+१)(ज्ये'+३) ज्येष्ठम्=(२('+=(ज्ये २+२)(ज्ये+४ज्ये'+३) ज्ये२+)ज्ये४ ज्ये२+१) = (ज्यै+२){) ज्ये'२)-५ {'}('#'+} अत उपलमचायत मिति ॥६८ अब ऋणात्मक चार क्षेप के कनिष्ठ और ज्येष्ठ से रूपक्षेप में कनिष्ठ भौर ज्येष्ठ के आनयन को कहते हैं। हि. भा–ऋणात्मक चार क्षेप में ज्येष्ठ वर्ग को दो स्थानों में स्थापन करना, एक स्थान में तीन जोड़ना दूसरे स्थान में एक जोड़ना, इन दोनों के घातार्ध को पृथक् स्थापन करना, एक स्थान में एक हीनकर जो हो उसको एक हीन कनिष्ठ से गुणा करना चाहियेतब रूप क्षेप में ज्येष्ठ होता है। पूर्वं स्थापित को कनिष्ठ और ज्येष्ठ के धात से गुणा करने से पूर्वागत ज्येष्ठ सम्बन्धी कनिष्ठ होता है इति । उपपत्ति । कल्पना करते हैं ऋणात्मक चारक्षेप में कृनिष्ठ=क। ज्येष्ठ=ज्ये । वर्गे प्रकृति लक्षण से प्र. क२-४=ज्ये २ दोनों पक्षों में चार जोड़ने से प्र. क२ = ज्ये२+४ अतः श्र =ज्य++४ ‘इष्ट वगं हृतः क्षप’ इत्यादि से इष्ट=२ कल्पना करने से ऋणात्मक रूपक्षेप में कृनिष्ठः = क , ज्य ठ- = ये तुल्य भावना से रूपकेप में कनिष्ठः = क. न्ये ज्येष्ठ कज्ये +२ज्येष्ठ ज्यै२+२ ="T भावना में = - (म्य), इनसे समस से रूपक्षेप कनिष्ठः
पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/१५३
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति