( ८ ) नवतिकृतेः प्रोह्य पदं नवतेः संशोध्य शेष भागकलाः । एवं धनुरिष्टाया भवति ज्याया विना ज्याभिः । बहुत पहले से ज्याविना भुजज्या और भुजकोटिज्या का आनयन ‘दोः कोटिभाग रहिताभिहताः' इत्यादि प्रकार से श्रीपति द्वारा कथित है, यह बात ज्योतिषियों में प्रसिद्ध है। इसी का अवलम्बन करके ‘ग्रहलाघव' नामक अपने करणग्रन्थ में विस्तार से लिखा है । परन्तु वस्तुत: यह प्रकार ब्रह्मगुप्त ही का है। उनके उपर्युक्त श्लोकों से यह बात सर्वथा स्पष्ट हो गई है। अब यह सन्देह का निषय नहीं रहा । वटेश्वर सिद्धान्त में वटेश्वराचार्य ने भी ब्रह्मगुप्तोक्त इसी प्रकार को श्लोकान्तरों में लिख दिया है । सिद्धान्तशेखर में सर्वत्र श्रीपति का अपना निजी थोड़ा ही है, उन्होंने भी ब्रह्मगुप्तोक्त प्रकार की ही प्रकार श्लोकान्तरों में वणित किया है। उदाहरण को लिए देखिये सिद्धान्तशेखर के सूर्यग्रहणा तिथ्यन्तात् स्थितिखण्डहीनसहितात् प्राग्वत्ततो लम्बनं । कुर्यात् प्रग्रहमोक्षयोः स्थितिदलं युक्तं विधायासकृत् । तन्मध्यग्रहणोत्थलम्बनभुवा विश्लेषणानेहसा । मदधोंनयुतातिथेरपि तथा संमीलनोन्मीलने ।। अधिकमृणयोराद्य मध्यात्तथाऽन्त्यमिहाल्पकं । भवति धनयोश्चाद्य हीनं यदाऽधिकमन्तिमम् । नमनविवरेणैवं कुर्याद्विहीनमतोऽन्यथा । स्थितिदलमृणस्वस्थे भेदे तदैक्ययुतं पुनः । यह श्रीपत्युक्त प्रकार ब्रह्मगुप्त के अधोलिखित प्रकार के सर्वथा अनुरूप ही है प्राग्वल्लम्बनमसकृत् तिथ्यन्तात् स्थितिदलेन हीनयुतात् । अधिकोनं तन्मध्यादृष्णयोरूनाधिकं धनयोः ।। यद्यधिकं स्थित्यर्ध तदाऽन्तरेणान्यथीनमृणमेकम् । अन्यद्धनं तदैक्येनाधिकमेवं विमदधे । इसी प्रकार प्रकारान्तर से कहा गया श्रीपत्युक्त स्फुटस्थिति दल साधन प्रकार स्थित्यधनयुतात् परिस्फुटतिथेः स्याल्लम्बनं पूर्ववत् । तन्मध्यग्रहव च मध्यमतिथो ततस्तु तिथौ ।। स्थित्यर्धेन परिस्फुटेषु जनितेनोनाधिकाद्वाऽसकृत् । तत्तिथ्यन्तरनाडिकाः स्थितिदलेस्तः स्पर्शमुक्त्योः स्फुटे ।
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