( १० ) चाहिए जिससे उनके सादृश्य की जानकारी हो सके । प्राचीनोक्त विषयों का आश्रय लेकर अनेक विशिष्ट विषयों को कहने के लिए श्रीपति ने प्रथम साधनाध्याय, तथा ग्रहभगणा ध्याय की रचना की । उसके पश्चात् मध्यमाध्याय में-सात प्रकार से अहर्गणानयन-वार प्रवृत्ति के विषय में विभिन्न आचार्यो के मत का प्रतिपादन-तद्गत दोष निरूपण करके अपने मतानुसार वार प्रवृत्ति का प्रतिपादन-मध्यम ग्रह साधन के लिए नाना प्रकार का नूतन प्रकारान्तर वर्णन-तथा रवि आदि सब ग्रहों के राश्यादिमन्दोच्च का प्रतिपादन आदि नाना प्रकार के विषयों का दिग्दर्शन श्रीपति के सिद्धान्तशेखर में मिलता है । ब्राह्म स्फुट सिद्धान्त में अहर्गणानयन बहुत प्रकार से किया गया है, उन प्रकारों का अनुकरण श्रीपति ने किया है। प्राचार्य ने लघ्वहर्गणानयन भी किया है परन्तु श्रीपति ने उसकी चर्चा नहीं की । अहर्गण से अभीष्ट वार ज्ञान के लिए अहर्गण में एक जोड़ना चाहिए यह बात ब्रह्मगुप्त ने लिखी हैं। उसके पश्चात् सिद्धान्तशेखर में भी श्रीपति ने उनका अनुकरण किया है । सिद्धान्तशिरोमणि में भास्कराचार्य ने अहर्गण से अभीष्टवार ज्ञानार्थ अहर्गण में सैक निरेक करना लिखा है यथा अभीष्टवारार्थमहर्गणश्चेत्सैको निरेकस्थितयोऽपि तद्वत् । ब्रह्मगुप्त ने अहर्गण में निरेक करण की चर्चा क्यों नहीं की, नहीं कहा जा सकता । वटेश्वर सिद्धान्त में भी नाना प्रकार से अहर्गणानयन और लघ्वहर्गणानयन किया गया है । ब्रह्मगुप्त द्वारा अनेक प्रकार से किये गये अहर्गणानयन को देख कर वटेश्वराचार्य ने भी उन्हीं के मार्ग का अवलम्बन किया है । अर्वाचीन आचार्यो (भास्कराचार्य-कमलाकर आदि) के ग्रन्थों में अनेक प्रकार से साधित अहर्गणानयन देखने में नहीं आता है । यद्यपि लघ्वहर्गणानयन में स्थूलता है, तथापि एक अपूर्वं वस्तु का प्रतिपादन किया गया है। वटे श्वराचार्यकृत लघ्वहर्मणानयन भी स्थूलरूप में कहा गया है। इन आचायों के अतिरिक्त और किसी प्राचार्य के ग्रन्थ में लध्वहर्गणानयन के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा गया है। सिद्धान्त तत्व विवेक में कमलाकर ने भास्करोक्त लध्वहर्गणानयन में वार गणना का खण्डन किया है। स्फुटगत्यध्याय में आर्यभट-ब्रह्मगुप्त-लल्ल आदि आचायों ने वृत्त परिधि के चतु थांश (नवत्यंश) में दो सौ पच्चीस कलावृद्धि से चौबीस क्रमज्या और उत्क्रमज्याँ का साधन किया है। आर्यभट और लल्ल की त्रिज्या=३४३८, ब्रह्मगुप्त मत स्फुटगत्यध्याय में त्रिज्या ३२७०, इन सर्वोों से भिन्न श्रीपति की त्रिज्या=३४१५, ब्रह्मगुप्तोक्त भूपरिधि=५००० । ‘पादोन गोऽक्षधृतिभूमितयोजनानि' इन भास्करोक्ति से ग्रहों की योजनात्मक गति=११८५८॥४५, ‘गतियोजनतिथ्यंशः कुदलस्य
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