१३१० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते <मलर=<मलस=६० अतः रमल, लमस त्रिभुजद्वये तुल्ये (र.प्र.ल-२६ क्षे) तेन लस= लर= वय । अत: यश==वश +लस शरय, शमव त्रिभुजयोः साजात्याद रय.श = वम अत उपपन्नमाचार्योक्तमिति ॥१७॥ अब ‘इष्टग्रहौच्च्यशो यः' इत्यादि प्रश्न को उत्तर कहते हैं । हि- भा.-गृह और नर (द्रष्टा) के मध्य में जो अन्तर भूमि है उसको दृष्टि की उच्छिंति (ऊंचाई) से गुणा कर ग्रह की उच्छूितियुत दृष्ट्युच्छिंति से भाग देने से जो लब्ध हो ततुल्य भूमि नर से चूह की तरफ (ग्रहाभिमुख) जो हो वहां जल को स्थापन करने से उस जल में गृह के अग्न के प्रति बिम्ब दृश्य होता है इति ।।१७।। उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (१) चित्र को देखिये । लस=हौच्च्य, वश=दृगौ उच्य, दृष्टि की ऊंचाई, म=जल, लब= गृह और नर की अन्तर भूमि= रय, गृह के अग्र का प्रति बिम्ब यदि श दृष्टि से दृश्य होता है तब ज्योतिविधी के पतित कोण और परातत कोण की तुल्यता सिद्धान्त से ८लमस=Zवमश तथा रमल=<वमश, मलर= मलस=६० । इसलिये रमल, लमस दोनों त्रिभुज सर्वथा तुल्य हुए (ने.है) प्र.अ. २६ अत: लस=लर= वय, तथा यश=वश+लस, शरय, शमव दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं यव , =वमअतः आचार्योंक्त उपपन्न हुआ इति ॥१७॥ इदानीं गृहपुरुषान्तरसलिले यो दृष्ट्वेत्यादि प्रश्नोत्तरमाह गृहपुरुषान्तरसलिले वीक्ष्य गृहाणे इंगौच्च्य सङगुणितम् । गृहतोयान्तरमौल्यं गृहस्य नृजलान्तरेण हृतम् ॥१८॥ सु. भाऊ हपुरुषयोर्मध्येयत् सलिलं स्थापितं तस्मिन् ग-हारौ वीक्ष्य यदि गृहौच्च्यमपेक्षितं तदा गहुतोयान्तरं दृगच्च्यसङगुणितं नृजलान्तरेण हृतं फलं ग्रहस्यौच्च्यं भवेत् । अत्रोपपत्तिः । पूर्वश्लोक क्षेत्रे राहतोयान्तरम्गप्र =। नृजलान्तरम्=प्र न। प्र ग्र उ, दृ न प्र त्रिभुजे च सजातीये ततः=ग उ रा, टु अत ।१८। प्रॐ न उपपद्यते । प्र न वि. भा.-गृहपुरुषान्तरे स्थापिते जले गृहाग्रं दृष्ट्वा यदि गृहौच्च्यज्ञानम भीष्टं तदा गृहजलान्तरं दृगौच्च्य (दृष्टयुलुझाय) गुणितं भक्त पुरुषजलान्तरण तदा लब्धं गृहस्यौच्छ यं भवेदिति ।
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