आचार्ये वराह ब्रह्मगुप्त और लल्लाचार्य ने ग्रहयुत्यध्याय (ग्रहयुद्धाध्याय ग्रहयुत्यध्याय या ग्रहयोगाध्याय) में उदयान्तर कार्य के बिषय में कुछ भी नहीं कहा है । परन्तु ( १३ ) अन्त्यभ्रमेण गुणिता रविबाहुजीवाऽभीष्टभ्रमेण विहृता फलकार्मुकेण । बाहोः कलासु रहिता रहितास्ववशेषकं ते यातासवो युगयुजोः पदयोर्धनर्णम् ।। तथा के द्वारा श्रीपत्युक्त दृग्गणितैक्यकारक कर्म ही को भास्कराचार्य ने 'उदयान्तर कर्म' नाम से कहा है । जब तक सिद्धान्तशेखर उपलब्ध नहीं था तब तक आधुनिक गणकों को यही विश्वास था कि यह उदयान्तरकर्म सर्वप्रथम भास्कराचार्य ने ही लिखा है।. परन्तु इस उदयान्तर को दृष्टि में रख कर सर्व प्रथम श्रीपति ने ही अपने विचार व्यक्त किये थे । त्रिभविरहितचन्द्रोच्चेन भास्वद् भुजज्या गगननपविनिघ्नी भत्रयज्याविभक्ता । भवति चर फलाख्यं तत् पृथक्स्थं शरघ्नं हृतमुडुपतिकर्णत्रिज्ययोरन्तरेण ॥१॥ परमफलमवाप्तं तद्धनर्ण पृथक्रस्थे तुहिनकिरणकरणे त्रिज्यकोनाधिकेऽथ । स्फुटदिनकर हीनादिन्दुतो या भुजज्या स्फुट परमफलघ्नी भाजिता त्रिज्ययाऽऽप्तम् ।।२॥ शशिनि चरफलाख्यं सूर्यहीनेन्दुगोलात् तदृणमुत धनं चेन्दूच्चहीनार्क गोलम् । यदि भवति हि साम्यं व्यस्तमेतद्विधेयं स्फुटगणितदृगैक्य कत्तुमिच्छभिरत्र ।॥३॥ इन तीनों श्लोकों के द्वारा श्रीपति ने द्वग्गणितैक्य के लिए चन्द्र में संस्कार विशेष को कहा है । किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में यह संस्कार नहीं लिखा है । यद्यपि इन्दूच्चोनार्ककोटिघ्ना गत्यंशा विभचा विधोः । गुणो व्यर्केन्दुदोः कोटयोरूप पञ्चाप्तयोः क्रमात् ।। फले शशाङ्कतद्गत्योलिप्ताद्य स्वर्णयोर्वधे । ऋणं चन्द्र धतं भुक्तौ स्वर्णसाम्यवधेऽन्यथा ।। के द्वारा इसी प्रकार (श्रीपत्युक्त चन्द्रसंस्कार की भांति) के चन्द्रसंस्कार का उल्लेख ‘लघुमानस' नामक करण ग्रन्थ में मुञ्जालाचार्य ने किया है। परन्तु इन दोनों में सादृश्या भाव के कारण, श्रीपति ने वेधद्वारा देख कर उस (लघुमानसोक्त ) से भिन्न कहा है,
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