पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/२३७

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१३२८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त भ्रमति । चन्द्रादीनां ग्रहाणां कक्षाश्च तस्मिन् भचक्र बद्धा भ्रमन्तीति । सूर्यसिद्धान्ते “ध्रुवोन्नतिर्भचक्रस्य नतिर्मेरुं प्रयास्यतः । निरक्षाभिमुखं यातुर्विपरीते नतोन्नते । भचक्र' ध्रुवयोर्बद्धमाक्षिप्तं प्रवहानिलैः । पयत्यजसू ' तन्नद्धा ग्रहकक्षा यथाक्रमम्” इति सूर्याशपुरुषोक्तसदृशमथवाऽऽचार्योक्त चेति ॥५॥ अब चक्रस्रमण व्यवस्था को कहते हैं। हि. भा-मेरु से अन्यत्र सब दिशाओं में भचक्र की उन्नति होती है और उत्तर ध्रुव की नति होती है । लङ्का में भचक्र सममण्डलाकार है और दोनों ध्रुव लङ्का क्षितिज में हैं । द्रष्टा मेरु से ज्यों ज्यों सब दिशाओं में जाते हैं त्यो त्यों ध्रुव की नति होती है यह आचार्य का कथन है, परन्तु लङ्का ही को मूल स्थान मानकर भास्कराचार्य ने स्थिति का प्रति पादन किया है इसलिये निरक्षदेशे क्षितिमण्डलोपगौ' इत्यादि भास्कराचार्योक्ति और आचार्योक्ति में कुछ भी भेद नहीं है। अर्थात् मेंरु की ओर जाते हुए मनुष्य को उत्तर ध्रुव की उन्नति और भचक्र की नति देखने में आती है । एवं उत्तर भागं से निरक्ष देशाभिमुख जाते हुए मनुष्य को नति और उन्नति विपरीत देखने में आती हैं अर्थात् उत्तर ध्रुव की नति और भचक्र की उन्नति देखने में आती है । ‘उदग्दिशं याति यथा यथा नरः' इत्यादि भास्करोक्ति से यह स्फुट है । निरक्षदेश से उत्तर भी बहुत देशों में उत्तर ध्रुव का दर्शन नहीं होता है, इसलिए यहां सिद्धान्त कहने में भूपृष्ठजनित अवरोध को स्वीकार न कर भूगर्भ ही से सब कुछ विचार करना चाहिए ।। सूर्य सिद्धान्त में भी ‘ध्रुवोन्नतिर्भचक्रस्य’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से इन्हीं बातों को कहा गया है इति ॥५॥ इदानीं देवादीनां रविम्रमणस्थिति कथयति । देवाः सव्यगमसुराः पश्यन्त्यपसव्यगं रवि क्षितिजे । विषुवति समपश्चिमगं निरक्षदेशस्थिताः पुरुषाः ॥६॥ सु० भा०-विषुवति मेषतुलादौ देवाः क्षितिजे रविं सव्यगमसुरा' अपसव्यगं निरक्षदेशस्थाः पुरुषाश्च समपश्चिमगं पश्यन्तीति प्रसिद्धम् ॥६॥ वि. भा.-देवा दैत्याश्च नाडीमण्डलरूपक्षितिजे विषुवति (सायनमेषतुलादौ) क्रमशः सव्यगमपसव्यगं रविं पश्यन्ति । निरक्ष देशवासिनस्तं रविं (सायनमेषादौ सायनतुलादौ च स्थितं सूर्य) पूर्वापरवृत्तानुकारे नाड़ीवृत्ते पश्यन्तीति ॥६॥ अब देवादियों की रवि भ्रमण स्थिति को कहते हैं । हि. भा.-नाड़ी मण्डल रूपक्षितिज में सायन मेषादि में और सायनतुलादि में (१) ‘देवासुरा विषुवति क्षितिजस्थं दिवाकरम् । पश्यन्ति’ इति सूर्य सिद्धान्तेऽप्येव