१३३४ ब्राहास्फुटसिद्धान्ते
लगती है बह् पितरोम् भ्रध्र्:खस्वस्तिक है| पितरोम् के ऊध्व् खस्वस्तिक(परिरगतचन्द्र) मे रबि के भाने से पितरोम् का दिनार्ध काल होगा लैकिन वहीम् पर चन्द्र भी है इसलिये यदि चन्द्र का शराभाव हो तो रवि भ्रॉर चन्द्र के एक स्थान मे रहने से दर्शान्त(भ्र्मावास्या) होने के कारर्ग् सिद्ध होता है कि दशन्ति मे पितरोम् का दिनार्ध होता है| एवम् द्वितीय दर्शान्त मे द्वितीय दर्शान्त होता है,दोनोम् दर्शान्त का भ्र्न्त्तर एक चन्द्रमास है वही पितरोम् का दिनार्षान्तर काल भी है परन्तु दिनार्धान्तर काल( एक दिनाधम् से दूसरे दिनाधम् तक ) उदयान्तर काल ( एक सृर्योदय से दुसरेन् सृर्योदय तक) के बराबर होता है, सृर्योदयदूयान्तर काल एक दिन है भ्र्त: दिनार्धान्तर काल भी एक के बराबर हुभ्रा | इसलिये सिद्ध हुभ्रा कि पितरोम् का दिन(भ्रहोरात्र) एकचान्द्रमास के वराबर होता है प्रर्थात् पितर लोग चान्द्र मास के भ्राधे ( एक पक्ष)तक उदित सूर्य को देखते रहते है|
सूर्य सिद्धान्त मे सकृदुदगतमब्दाध पश्यन्त्यक सुरासुरा: |पितर: शशिगा: पक्षम् इस सूर्याश पुरुषोत्त्क के क्षनरूप ही प्राचार्योत्त्क है | सिद्धान्त शिरोमएगि मे रवीन्द्वोयुते: सम्युतिर्यावदन्या विधोर्मास एतच्च पैत्रम् द्युरात्रम् यह् भास्करोत्त्क क्षाचार्योत्त्क के क्षनुरुप ही है|तथा विघूर्त्रभागे पितरो वसन्त:स्वाध: सुधादीधितिमामनन्ति पश्यन्ति ते: अकम् इत्यादि संस्कृतोपपत्ति मे लिखित श्लोक से गालाध्याय मे भास्कराचार्य ने उसी वात को कहा है इति ||५|| इदानीम् भूगोले लड्कावन्त्यो: संस्थानमाह्|
भूपरिबि चतुर्भागि लड्कामूमस्तकात् क्षितितलाच्च | लड्कोत्तरतोsवन्ती भूपरिधे: पन्चदशभागे||६||
सु० भा०---भूमस्त्को मेरु: क्षितितलक्ष्च कुमैरुस्तस्मादभूपरिधिचतुर्थभागेsन्त रे दक्षिएगदिशिलक्डानाम नगरी । लक्डोत्तरतक्श्च भूपरिधिपच्चदशभागेsन्ती वर्तते । भास्करश्चाचार्यानुयायी निरक्षदेशात् क्षितिषोडशाम्शे भवेदवन्ती इति कथितवान् ।तेनान्येषाम् मते षोडशे भागे इत्यत्र पाठान्तरम् । चतुर्वेदाचार्यसम्मत: पाठश्च पच्चदशभागे अयमेव ||६||
बि० भा०---भूमस्त्कात् (मेरो:) क्षितितलाज्च(कुमेरोश्च) भूपरिथिचतुर्थाशा(नवत्यम्श) न्तरे-दक्षिएगस्याम् दिशि लक्डा नाम नगरी वर्त्तते । लड्कात उत्तरदिशि भूपरिघिपज्चदशाम्शान्तरेsवन्ती(उज्जयिनी) वर्त्तते। भास्कराचार्येरग गोलाथ्याये निरक्षदेशात् क्षितिषोडशाम्शे भवेदवन्ती गरिगतेन यस्मात् एवम् कध्यते । भूपरिधिथोजनषोडशाम्शान्तरे निरक्षदेशादवन्ती वर्त्तते तदर्थ गरिगतम् । यदि षष्ट्चधिक्-शतत्रयै ३६० रम्शै र्भूपरिघियोजनानि लभ्यन्ते तदा sवन्त्यक्षाम्शेन किमित्यनुपातेन निरक्षदेशावन्त्योरन्तरयोजनान्यागछन्ति तत्स्वरूपम्। (भूपरिधियोजन * श्चवन्त्यक्षाम्श्)/३६०=निरक्ष देशावन्त्योरन्तरयोजनानि । क्षवन्तीदेशे-