पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/२६१

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१३५२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ज्या । त्रि=त्रिज्या । केम=केग=त्रि । मग=पूर्णज्या (९०, मय=गय= ज्या ४५, ल=मगचापार्धबिन्दुः। केम'+ केग'=पूज्या' (३०)=त्रि'+त्रि’=-२ त्रि'पक्ष चतुभिर्भक्तौ तदा पूज्या' (३०) = २ त्रि' -ष्या' ४५ मूलेन /२ क्षुि । =ज्या ४५=द्वादशी ज्या, एतेनैकगुणितत्रिज्यावर्गश्चतुर्भक्तस्तन्मूलमष्टमी ज्या =राशिज्या=त्रिशदंशज्या, त्रिज्यावर्गा द्विगुणश्चतुर्भक्तस्तन्मूलं पञ्चचत्वारिंश दंशज्या=द्वादशी ज्या त्रिज्यावर्गस्त्रिगुणश्चतुभं भक्तस्तन्मलं षष्टिभागज्या=षोड़शी ज्या, आचायोंक्तमुपपन्नम् । सिद्धान्तशेखरे शशियमदहननात् व्यासखण्डस्य वर्गात् पृथगुदधिविभक्तात् त्रीणि मूलानि यानि । वसुरविनृपसंख्याभाञ्जि जीवादलानि क्रमश इह भवेयुर्नूनमन्यानि तेभ्यः । इत्यनेन श्रीपतिनाऽऽचार्योक्त मेव श्लोकान्तरेणोक्तम् । भास्करेणापि “त्रिज्यार्ध राशिज्या तकोटिज्या च षष्टि भागानाम् । त्रिज्यावर्गावुपदं शरवेदांशज्यका भवति ।’ इत्युत्तञ्च तदेवोक्त मिति ॥१६ अब गणित से ज्याघ्नयन को कहते हैं। हि. भा.-एक गुणित त्रिज्यावर्गों को मार से भाग देकर सूल लेने से अष्टमज्यार्षे = अष्टमीज्या=तीस अंश की ज्या होती है, तथा द्विगुणित त्रिज्यावर्षों को घर से भाग देकर सूल लेने से पैतालीस अंश की ज्या=ड्दशीज्या होती है, एवं त्रिज्यावर्गे को तीन से गुणाकर घर से भाग देकर सूल लेने से साठ अश की ज्या=षोड़शी ज्या होती है इति । उपपत्ति । बहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये । के=वृत्तीन्द्र । नपचाप =६०° । वनचाप=३०°, नर= या ३०, पश=ज्या ६०, वन=पूर्णज्या (६०) । नश =ज्याउ ६० । ज्यउ=उत्क्रमज्या, तब केनर, पनश दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से नया केर अनुपात करते हैं ज्याउ ६०ज्या ६० नर== =३० = ज्या ज्याउ ज्या ६० ६०=त्रि-ज्या ३० दोनों पक्षों में ज्या ३० जोड़ने से त्रि=ज्या ३०+ज्या ३०८२ ज्या ३० दोनों पक्षों को दो से भाग देने से त्रि =ज्या ३०==अष्टमीज्या= राशिज्या । तथा

त्रि -- ज्या' ३० = कोज्या' ३० = ज्या ६० =त्रि- -

  • =f= त्रिशूल लेने से ज्या ६०= ३ =ि

तया केम==केग=त्रि । मग चाप पूर्णज्या=पूज्या (e०) । मय= गय=ज्या ४५ । ल=