१३७१ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते आचार्योऽत्र कारणमाह । मन्दकर्मणि मन्दकर्णतुल्येन व्यासार्धेन यवृत्तमुत्पद्यते तत्कक्षावृत्तम् । तेन ग्रहो गच्छति । यो मन्दपरिधिः पाठपठितः स त्रिज्यापरिणतः। अतोऽसौ कर्णव्यासार्धे परिणाम्यते । यदि त्रिज्यावृत्तेऽयं परिधिस्तदा कर्णवृत्ते क इति स्फुटपरिधिः। तेन भुजज्या गुण्या भांशैः ३६० भाज्या, ततस्त्रिज्यया गुण्या परिधि. कर्ण ४ भुज्या x त्रि कर्णेन भाज्या तदा जातं स्वरूपम् = त्रि x ३६० x क परिधि xभाज्या सृष्या, पूर्वफलतुल्यमेव फलमागच्छतीत्याचार्यंमतम् । ३६ अथ यद्येवं परिधेः कणन स्फुटत्वं हि शीघ्रकर्मणि कि न कृतमत्र चतुर्वे दाचार्यं आह । चले कर्मणीत्यं कि न कृतमिति नाशङ्कनीयम् । यतः फलवासना विचित्रा । शुक्रस्यान्यथा परिधेः स्फुटत्वं कुजस्यान्यथा तथा कि न बुधादीनामिति नाशङ्कनीयमत आचार्योक्तिरत्र सुन्दरी ॥ २९ ॥ अब मन्द कर्म में कर्णानुपात क्यों नहीं किया जाता है इसके कारण कहते हैं । हि. भा–मन्द फल साधन में मन्द परिधि को कर्ण से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने से भुज और कोटिं का गुणक बारबार क्रिया से होता है । उस परिधि से मान्दफल आद्य सम ही होता है अर्थात् बिना कvनुपात के सभागत मन्दफल के बराबर ही होता है । इसलिये मन्दफलानयन में कर्णानुपात नहीं किया गया अर्थात् यदि कर्णाग्न में मन्दफल पाते हैं तो त्रिज्याग्न में क्या इस त्रैराशिक के लिये कर्णानुपात नहीं किया जाता है। सिद्धान्त शेखर में ‘त्रिज्याहृतः श्रुतिगुणः परिचिः’ इत्यादि विज्ञानभाष्य में लिखित श्लोक से मन्दफल साधन में भी कर्णानुपात से जो फल आता है वही समीचीन है। इसलिये कर्णानुपात क्यों नहीं किया गया इसके उपपत्तिरूप श्रीपत्युक्तश्लोक आचायॉक्त श्लोक के अनुवादरूप ही है । भास्कराचार्य भी ‘स्वल्पान्तरत्वान्मृदुकर्मणीह' इत्यादि विज्ञानभाष्य में लिखित श्लोकों से यहां कथं से जो फल लाते हैं वही समीचीन हैं, मन्दकर्म में कर्णानुपात स्वल्पान्तर से नहीं किया गया, मन्दफल स्वल्प है उसका अन्तर अतिशयेन स्वल्प है यह किसी-किसी का पक्ष है । यहां आचार्य कारण कहते हैं। मन्दकर्म में मन्दकणं तुल्य व्यासाधे से जो वृद्ध होता है। वह कक्षवृत्त है। उसमें ग्रह भ्रमण करते हैं। पाठपठित मन्द परिधि त्रिज्यान में परिणत है । उसको कर्णं व्यासार्ध में परिणत करते हैं, यदि त्रिज्यावृत्त में यह पाठपठित मन्द परिघि पाते हैं तो कर्णवृत्त में क्या इससे स्फुट परिधि प्रमाण आता है, इसको भुजया से गुणाकर ३६० भांश से भाग देकर जो फल होता है उसको त्रिज्या से गुणाकर कर्ण से भाग देना चाहिये तब उसका स्वरूप- =परिबि. . शुष्यः त्रि_ परिबि. मुञ्या. त्रि. ३६०कर्ण ३६॥ पूर्वफल तुल्य ही फल आता है यह आचार्यों का मत है यदि इस तरह करों से परिधि का स्फुटत्व होता है तब शीघ्रकर्म में क्यों नहीं किया गया इसके लिये चतुर्वेदाचार्य कहते हैं। कणं
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