ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते १३९० राहुः कुभामण्डलगः शशाङ्क' शशाङ्गश्छादयतीनबिम्बम् । तमोमयः शम्भुवसंप्रदानात् सर्वागमानामविरुद्धमेतत् एवमुक्तमिति । अथात्र संहितायां गणितागतसमयात् पूर्वं परतो वा ग्रहणदर्शने तदुत्पात रूपमिति तत्फलं च गगक्तम् । 'जैन . ‘वेलाहीने शस्त्रभयं गर्भाणां श्रावणं तथा। अतिवेले फलानां तु सस्यानां क्षयमादिशेत् दृक्समे पर्वणि नृपा निखैरा विगतज्वराः प्रजाश्च सुखिताः सर्वाभयरोगविजताः इति लक्ष्यीकृत्य वराहमिहिरेण ‘चेलाहीने पर्वणि गर्भविपत्तिश्च शस्त्रकोपश्च । अतिवेले कुसुमफलक्षयो भयं सस्यनाशश्च हीनातिरिक्तकाले फलमुक्त पूर्वशास्त्रदृष्टत्वात् । स्फुटगणितविदः कालः कथञ्चिदपि नान्यथा भवति ।।' एवं दृग्गणितैक्य विधाने स्वपाटवं प्रदर्शितमिति ।।४४-४५॥ अब अपना मन्तव्य कहते हैं । हि- भा.-पूर्णान्तकाल में चन्द्र बिम्ब भूभा के अन्धकार में प्रवेश करता है ब्रह्मा के वरप्रदान से भूछाया (भूभा) को आश्रयण कर अर्थात् भूभा बिम्ब में प्रविष्ट हो कर राहु उसी चन्द्र बिम्ब को आच्छादित करता है । एवं अमान्त काल में सूर्य बिम्ब से अघः स्थित चन्द्रबिम्ब सूर्यबिम्ब को आच्छादित करता है, ब्रह्मवरप्रदान से राहु चन्द्रबिम्ब में प्रविष्ट हो कर उसी सूर्य बिम्ब को आच्छादित करता है । अर्थात् पूर्णान्त काल में राहु चन्द्र बिम्ब को आच्छादित करता हैं तथा अमान्त में चन्द्रमण्डलगत राहु सूर्यबिम्व को आच्छादित करता है । सिद्धान्तशेखर में “विष्णु लूनशिरसः किल पफ़ोर्दत्तवान्वरमिमं परमेष्ठी' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से श्रीपति ने भी 'आचायॉक्त के अनुरूप ही कहा है । 'अहणे कमलासनानुभावाद्भुतदत्तांश मुजोऽस्य सन्निधानम्' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित लल्लोक्त श्लोक को देख कर तथा ‘भूमेछायां प्रविष्टः स्थगयातिं शशिनं इत्यादि विज्ञानभाष्य में लिखित श्रीपत्युक्त को देख कर के गोलाध्याय ग्रहणवासनाधिकार में “दिग्देश कालावरणादिभेदान्नच्छादको राहुरिति ब्रुवन्ति" इत्यादि से भास्कराचार्य ने आचार्योंक्त के अनुरूप ही संहिता-वेद-स्मृति-पुराणों के मतों के साथ ज्य तिष सिद्धान्त का समन्वय किया है । संहिता में गणितागत समय से पहले वा पीछे ग्रहण दर्शन होने से उत्पातरूप फल गर्ग ने कहा है जैसे “बेलाहीने शस्त्रभयं गर्भाणां श्रवणं तथा” इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित इलोकों को देखना चाहिये। इसी को लक्ष्य कर ।
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