गोलबन्धाधिकारः १३९७ मेषादि विन्दु (पूर्वस्वस्तिक) और तुलादि बिन्दु (पदिंचम स्वस्तिक) में नाडीवृन के साथ संसक्त क्रान्तिवृत्त को बांधना चाहिये । कक्षीदि (मिथुनान्त वि वन्द्वात्मकनवत्यचाप ) में नाड़ीग्रुत से चौबीस अंश उत्तर, मकरादि (धनुरन्तविन्द्वात्मक नवयशचाप) में चौबीस अंश दक्षिण क्रान्तिवृत्त को बांधना चाहिये, इस क्रान्तिवृन में रवि भ्रमण करते हैं चन्द्र आदि ग्रहों के पात भ्रमण करते हैं । रवि से छः राशि पर भूभा भ्रमण करती हैं । पात (क्रान्तिवृत्त और विमण्डल के सम्पात) से क्रान्तिवृत्त के सदृश अपने अपने शरसंशान्तर पर उन ग्रहों का विमण्डल होता है । रवि से छाया की उत्पत्ति होती है । रविकेन्द्र से भूकेन्द्र गामी सूत्र क्रान्तिवृत्त में जहां लगता है वही भूभा मध्यस्थान (कन्द्र) है । रवि क्रान्तिवृत्त में है, क्रान्तिवृत्त का केन्द्र भूकेन्द्र है इसलिये रवि से भूकेन्द्रगामी सूत्र क्रान्तिवृत्त में छः राशि पर लगता है क्यों कि वह सूत्र (वि से भूकेन्द्रगामी सूत्र) क्रान्तिवृत्त का व्यास है, व्यास रेखा वृत्त के दो समान खण्ड करती है अतः रवि से छः राशि पर भूभाकेन्द्र होता है यह आचायक्त युक्तियुक्त है । सिद्धान्तशेखर में ‘पूर्वापर स्वस्तिक सक्तवृत्तं इत्यादि' विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों से श्रीपतिआचार्योंक्त के अनुरूप ही कहा है । शिष्यवृद्धिद तन्त्र में ‘मेषतु लादौ लग्नं नाडीवृत्तेऽपमण्डलं’ इत्यादि लल्लाचार्योक्त विषय को अक्षरश: श्रीपति ने ग्रहण किया है इति ॥५२-५३। इदानीं विमण्डलान्याह । सौम्यं विमण्डलार्थं प्रथमं याम्यं द्वितीयमेतेषु । चन्द्रकुजजीवमन्दा भ्रमन्ति शीघ्रण बुधशुक्रौ ॥५४॥ सु. भा–प्रथम विमण्डलार्ध मेषादिराशिपकं विक्षेपांशैः सौम्यं द्वितीय मधं तुलादिषट्कञ्च याम्यं विक्षेपांशैर्बध्नीयात् । बुधशुक्रौ शीघ्रण शीघ्रोच्चेन स्वस्वविमण्डले भ्रमतः । तयोः शीघ्रोच्चे विमण्डले भ्रमत इति शेषं स्पष्टा थुम् ॥५४॥ विभाक्रान्तिविमण्डलयोः सम्पातः पात इति ततः प्रथमं विमण्डलाधं मेषादिराशिपकरूपं शरांशैः सौम्यं (उत्तरदिशि) द्वितीयमर्धा (तुलादिराशिषट्कं च) शरांशैर्याम्यं (दक्षिणदिशि) वध्नीयात् । एतेषु स्वस्वविमण्डलेषु चन्द्रभौमगुरु शनयो भ्रमन्ति बुधशुक्रौ शीघ्रोच्चेन स्वस्वविमण्डले भ्रमतोऽर्थतयोः शीघ्रोच्चे विमण्डले भ्रमत इति। सिद्धान्तशेखरे “विमण्डलार्ध प्रथमं निजेषुभागैरुदकं चोत्तर पातचिन्हाव । सषड्गृहाद् दक्षिणतो द्वितीयमर्च तथाऽपक्रमवृत्तवच्च । स्वस्वविमण्डलेषु चन्द्रार जीवार्कसुता भ्रमन्ति । निजोच्चवृत्तेन चलाभिधेन किलोश नश्वान्द्रमसायिनी च । ’ इत्यनेन श्रीपतिः, लल्लः "भूभा भाउँभानोः स्वशीघ्रवृत्ते ज्ञसितपातौ। विक्षेपमण्डलदलं पूर्वं क्षेपांशकैरुदक् पातात् । षड्भयुताद्दक्षिणतो
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