( २३ ) द्वयन शकेन्द्रकालं पञ्चभिरुद्धृत्य शेषवर्षाणाम् । द्विगुणमाद्यसिताद्य कुर्याद् द्युगणं तदह्वयुदयात् ॥२॥ सैकषष्टय'शे गणे तिथिर्भमार्क नवाहतेऽक्ष्यकैः । दिग्रसभागैः सप्तभिरूनं शशिभ धनिष्ठाद्यम् ॥३॥ द्वयग्निनगेषत्तरतः स्वमितमेष्यदिनमपि याम्यायनस्य । द्विघ्नं शशिरसभक्त द्वादशहीनं दिनसमानम् ॥५॥ इसके अनुसार एक युग में सौर वर्ष=५, सौरमाह ५X १२=६०, अधिमास =२, चान्द्रमास ='६२, इसे तीस से गुणा करते से तिथि= १८६०, अवम=३०, तिथियों में से इसे घटाने पर अहर्गण=१८३० ॥ आचार्य वराहमिहिर विक्रमादित्य के प्रसिद्ध नव रत्नों में से एक थे । इनके द्वारा बने ग्रन्थ ‘लघुजातक, बृहज्जातक, विवाहपटल, बृहद्योगयात्रा, बृहत्संहिसा, समास संहिता और पञ्चसिद्धान्तिका है । पौलिश सिद्धान्त, रोमक सिद्धान्त, वासिष्ठ सिद्धान्त, सौर (सूर्य) सिद्धान्त, और पैतामह सिद्धान्त, इन पाञ्च सिद्धान्तों के सार का संकलन रूप ‘पञ्चसिद्धान्तिका' है । इस ग्रन्थ को को वराहमिहिराचार्य ‘ताराग्रह कारिका तन्त्र' के नाम से पुकारते हैं। इस ग्रन्थ (पञ्चसिद्धान्तका) में ‘पौलिश सिद्धान्त'नाम का एक अध्याय है। पौलिश सिद्धान्त के रचयिता के सम्बन्ध में बहुत मतमतान्तर हैं । वराहोक्त पौलिशसिद्धान्त में यवनपुर से उज्जयिनी का और वाराणसी का देशान्तर उल्लिखित है, जैसे यवनाचरजा नाडयः सप्तावन्त्यां त्रिभागसंमिश्राः । वाराणस्यां त्रिकृतिः साधनमन्यत्र वक्ष्यामि । शाकल्य सैहितोक्त ब्रह्मसिद्धान्त में पौलिश सिद्धान्त का उल्लेख तथा पुलिशाचार्य के उज्जयिनी रोहीतक कुरुयमुना हिमनिवासमेरूणाम् । देशान्तरं न कार्य तल्लेखामध्यसंस्थदेशेषु । आदि विचार से ‘पौलिश सिद्धान्त' सर्वमान्य था । परन्तु यह सिद्धान्त अभी उप लब्ध नहीं है । सूर्य सिद्धान्त ही प्राचीनतम सिद्धान्त ग्रन्थ है, यह बहुत विद्वानों का मत है ।
- प्रागधे पर्व यदा तदोत्तराऽतोऽन्याय तिथिः प्रव ।
अर्कध्ने व्यतिपाताद्युगणे पञ्चाम्बरहुताशैः ॥४॥