१४१४ ब्राह्मस्फटसद्धान्ते ग्रहबिम्बकेन्द्रोपरिगत कदम्बश्रोतवृत्त क्रान्तिवृत्त में जहां लगता है वह ग्रह स्थान है । स्थानोपरिगत धुनप्रोतवृत्त कर देना। बिम्ब केन्द्र के ऊपर अहोरात्र वृत्त कर देना तब बिम्बकेन्द्र सै रथानपर्यन्त मध्यमशर एक भुज बिम्बकेन्द्र से स्थानोपरिगत ध्रुवप्रोतवृत्त के ऊपर लम्बवृत्त करने से लम्बवृत्तीय चाप द्वितीय भुज । लम्बन से स्थान पर्यन्त तृतीय भुज इन तीनों भुजों से उत्पन्न त्रिभुज में स्थानगत कदम्बप्रोतवृत्त और ध्रुवप्रोतवृत्त से उत्पन्न कोण आयनवलन है । स्थानगतध्रुवम्रोतवृत्त और लम्बवृत्त से उत्पन्न कोण = &०, तब अनुपात से मध्यमशरज्या. आयनवलनज्या मध्यमशर. सत्रिभग्रहक्रान्ति त्तीयचापज्या=बिम्बीयाहोरात्रवृत्तीय चापज्या=बिम्बीयाहोरात्रवृत्तीयवापासु=बिम्बीया होरात्रवृत्तीय चापकला स्वल्पान्तर से आचार्य स्वीकार करते हैं । इसकी कलात्व से ग्रह में संस्कार करना उचित नहीं है इस बात को मान करके भी स्वल्पान्तर समझ कर श्राचार्य और लल्लाचार्य उसी फल का ग्रह में संस्कार किया है । भास्कराचार्य मध्यमशरआयनवलन इसको त्रिध्यान में परिणत किया है जैसे - = नाडीवृत्यायन मध्यशर. आयनवलन. त्रि त्रि. बिम्बीयद्यु दृक्कर्मासु=-मयम्-आन्दोलन, यहां स्वल्पान्तर से बिम्बीययु=स्थानीयट्ट=यु इस फल को ग्रह संस्कार योग्यत्व ‘यदि गृहाश्रित राशि के निरक्षोदय सु में राशिकला १८०० पाते हैं तो इत असुश्रों में क्या इससे आयनदृक्कर्म कला आती है उसका स्वरूप मध्यशरK१८०० । आयनवलन किया है इससे भास्करोक्त ‘आयनं वलनमस्फुटेषुणा। द्यु, नि सङगुणं’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित पद्य उपपन्न होता है । सिद्धान्तशेखर में विक्षेप सत्रिभ खगौत्क्रमज्याऽपभज्य’ इत्यादि से श्रीपति प्रकार आचायक्त प्रकार से भिन्न है । लल्लाचार्य ने सत्रिभग्रह क्रान्तिज्या स्थान में उसकी उच क्रममज्या ली है श्रीपति ने भी लल्लो सत्रिभग्रह क्रान्तिज्या स्थान में उसकी उत्क्रमज्या को स्वीकार किया है। बहुत स्थानों में आचार्यमत को अनुसरण करते हुए कहीं कहीं लल्लोक्त को भी श्रीपति ने स्वीकार किया है यहां भी लल्लोक्तवत् सत्रिभग्रहक्रान्तिज्यास्थान उसकी उत्क्रमज्या को स्वीकार किया है । यदि क्रान्ति और वलन की एक दिशा हो यथा क्रान्ति और शर यदि उत्तर दिशा का है । वा दक्षिण दिशा का तब शर से उन्नामित ग्रह जब क्षितिज में आते हैं तावत् क्रान्तिवृत्त अह स्थान से पृष्ठ ही क्रान्तिवृत्त क्षितिज में लगता है वहां फल ऋण होता है । शर भर बर्लन की दिशा भिन्न रहने से विपरीत होता है अतः वहां फल घन होता है इति ।।६६।
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