१४४२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते पृथिवी प्रदेश में वृत्त लिखकर उसमें पूर्वादि दिशाओं के सूचक चिन्ह अङ्कित करना तथा तीन सौ साठ समान भाग कर देना, उसके मध्य (कन्द्र) में अपनी इच्छा के अनुसार जितने अङ्गुल की त्रिज्या हो उतनी अङ्गुल संख्या से चिन्हित और सब तरह से समान छायाहीन अर्थात् सूर्याभिमुख यष्टिं इस तरह रखी जाय जिससे स्वमार्गों में यष्टि को बढ़ाने से सूर्यबिम्ब केन्द्र में चली जाय । यष्टघम्र से (क्षितिज) के ऊपर लम्बशङ्कु होता है । इस वृत्त (झर्व लिखितवृत) में शङ्कुसूल और केन्द्र के अन्तर दृग्ज्या (नतांशष्या) होती है शङ्कुसूल से उदयास्त सूत्रपर्यन्त लम्बरूप अन्तर भुज है। शंकुसूल से उदयास्त सूत्रपर्यन्त लम्बरूपरेखा शङ्कवग्र संज्ञक है यही शकुंतल हैं । शकु वग्र (शकुतल) को बारह से गुणाकर पूर्वकथित लम्ब (शङ्कु) से भाग देने से स्फुट पलभा होती है । पहले त्रिज्यारूप यष्टि जितनी अङ्गुल की बनाई गई तदङ्गुल व्यासार्घवृत्त सम्बन्धिनी दृग्ज्या करनी चाहिये इति । उपपत्ति । समान पृथिवी में इष्ट त्रिज्या से वृत्त बनाकर उसमें दिशाओं के चिन्ह अङ्कित कर देना तथा भगणांश अङ्कित कर देना चाहिये वह क्षितिज वृत्त है । त्रिज्याङ्गुल यष्टि को इस तरह रखना चाहिये जिससे उसकी छाया नष्ट हो तथा उसको बढ़ाने से यष्टयग्र रवि बिम्बकेन्द्र में चला जाय । नष्टद्यति (छाया रहित) यष्टघम्र से नीचे जितना लम्ब है उतना उस समय में शङ्कु है । त्रिज्यारूप यष्टि और शङ्कुरूप लम्ब का वर्गान्तरमूल नतांशज्या (दृग्ख्या) शङ्कुसूल और वृत्तकेन्द्र का अन्तर रूप होता है । शङ्कुसूल से पूर्वापर रेख के ऊपर लम्ब भुज है । अग्राग्रगत (पूर्व पश्चिम दिग्गत अत्राद्वयगत) रेखा उदयास्तसूत्र है। उदयास्तसूत्र और शङ्कुसूल का लम्बरूप अन्तर शङ्कवम् ( शकुंतल ) है । तब अनुपात करते हैं यदि शङकु में शङ,कुतल भुज पाते हैं तो द्वादशाङ,गुल शङ्कु में क्या इस अनुपात से स्फुट पलभा आती है। शङ्कुसूल और यष्टिमूल का अन्तर दृग्ज्या है इसका स्वरूप पहले कहा गया है । यहां नतज्या--अग्राग्र बिन्दु से यष्टयङ,गुल मान के अनुसार अङ्गुलात्मक प्रमाण वाली लानी है । शङ कुसूल और यष्टिमूल के अन्तर में एक सरल शलाका रख कर उसको अङ्गुल से मापन कर उसका मान समझना चाहिये। यहां लल्लाचार्ये "दिङ मध्य स्थित मूला यष्टिर्नष्प्रभा त्रिगुणतुल्या" इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों के अनुसार कहते हैं सिद्धान्तशिरोमणि के गोलाध्याय में” त्रिज्या विष्कम्भाषं वृत्तं कृत्वा दिगतिं तत्र" इत्यादि विज्ञानभाष्य में लिखित श्लोकों से भास्कराचार्यं सर्वथा श्रीपयुक्त के समान ही कहा है इति ॥२०-२१॥ इदानीं प्रकारान्तरेण घटिकानयनमाह। यष्टेः स्वाहोरात्रार्धभाजिताऽन्तरदलाहता त्रिज्या । फलचापांशा द्विगुणाः षभिर्वा भाजिता घटिकाः ॥२२॥
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