यन्त्राध्यायः १४५१ तदा ‘‘ छायाप्रवेशनिर्गमनसमये केन्द्रस्थयष्टेरग्राल्लम्बं विधाय द्वौ समौ शंकु साध्यौ शङ्कृतल ४१२ ==पलभा । ततः Vपलभा'+१२ =पलकर्णः। क्रान्ति- शङ, ञ् ज्ञानं तु वर्तत एवातः पलक.झांज्या =प्रवेश कालिकाग्रा=प्रग्रा । पकxांज्या १२ १२ =निर्गमनकालिकाग्रा=अग्रा। क्रांज्या= छायाप्रवेशकालिक क्रान्तिज्या। क्रेज्या =ायानिर्गमनकालिक क्रान्तिज्या । शङ्कवोस्तुल्यत्वाच्छंतकुलमपि तुल्यमस्ति । अग्रा +शंतल=भुजः प्रवेशकालिकः । अग्रा+भूतल=भुजः = निगैमनकालिकः । अनयोरन्तरम् । अग्रान्तर=भुजान्तरम् । एतद्भुजान्तर वशेन वास्तवपूर्वापर रेखायाः समानान्तररेखाया ज्ञानं भवेत् । वृत्तकेन्द्रबिन्दुतस्तत्समानान्तरा रेखा वास्तव पूर्वापररेखा भवेत् । केन्द्रबिन्दुतस्तदुपरिलम्बरेखा दक्षिणोत्तरा रेखा भवेत् । प्राचीन रेखोपरिलम्बकरणथं मत्स्योत्पादनं क्रियते स्म । एतावता दिग्ज्ञानं जातमिति ।।२७।। अब यष्टियन्त्र से दिक्साधन को कहते हैं। हि. भा-समान पृथिवी में इष्टव्यासार्ध से लिखित वृत्त के केन्द्र में स्थापित कोल की छाया पूर्वकपाल में रवि के रहने से पश्चिम दिशा में वृत्त परिधि में जहां लगती है वह बिन्दु छायाप्रवेश बिन्दु है । पश्चिम कपाल में रवि के रहने से कील की छाया पूर्वदिश में वृत्तपरिधि में जहां लगती है वह छाया निर्गमबिन्दु है । छायाप्रवेश समय में और निर्गमन समय में नष्ट ति यष्टि के अग्र से लम्ब करके दो समानशङ्कु का साधन करता । उन दोनों शङ्कुओं से तत्तत्कालिक (प्रवेशकालिक और निर्गमनकालिक) क्रान्तिवश से भुजान्तर लाकर पूर्वापर दिशा साघन करना, उन दोनों से मत्स्योत्पादन से दक्षिणदिक्षर और उत्तर दिशा साघन करना चाहिये इति ।।२७। उपपत्ति । छाय प्रवेश समय में और निगैमन समय में केन्द्रस्थ यष्टि के अग्र से लम्ब करके दो शंतल ४१२ षलभा । +१२९ समन शङ्कु का साधन करना चाहिये। तब = पलभा' शङ्कु
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