१४७६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अब कपालयन्त्र को कहते हैं । हि. भा.-मध्यादि अपने नतांश से कपालयन्त्र होता है। फलक में दिशा से अङ्कित क्षितिजानुकार वृत्त बनाकर अभीष्ट दिन में वृज्या-चरज्या आदि से प्रत्येक अंश को कल्पनाकर मध्य नतांश पर्यन्त उन्नतघटी साधन कर उस घटी को व्यस्त कपाल में अपने अपने नतांशाग्र में वृत्तपाली में अङ्कित करना चाहिये, इस तरह से कपाल यन्त्र होता है । इष्टकाल में कपाल यन्त्र को हमण्डलाकार रखने से केन्द्रस्थ कीलच्छायानुसार केन्द्रगत सूत्र वृत्तपरिधि में जहां लगती है वहां अङ्कित नाड़ी इष्टघटी होती है । एवं दिक्स्थसूत्र मध्यान से सूत्रों का जो ऐक्ष (योग) है उसके आपात से अथवा वृत्तपरिधि के साथ संयोग ते व्यस्त (उल्टा) कपालस्य उन्नतांशान्तर में घटी होती है । सिद्धान्तशेखर में “इदं भवेद्ध्वं शलाकमु स्थितं कपालं धृतिदिक् च चाप’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों के अनुसार श्रीपति कहते हैं इस लोक का अर्थ यह है ऊध्र्वगत है शलाका वा लम्ब जिसमें ऐसा यह चाप मन्त्र समान पृथिवी में छाया दिशा में स्थित कपाल यन्त्र होता है । कपाल यन्त्र में व्यास सूत्र के मध्य बिन्दु में स्थापित कील की छाया से त्यक्तघटी पश्चिम दिशा में होती है इति ।।४२। आचार्योक्त सूत्र की उपपत्ति व्याख्यारूप ही । है । श्रीपयुक्त सूत्रोपपत्ति के लिये शिष्यधीवृद्धिद तन्त्र में "इदमेवोष्वंशलाकं भुवि स्थितं स्यात् कपालकं यन्त्रम् ’ इत्यादि लल्लोळ ही श्रीपयुक्त का मूल है, सिद्धान्तशेखर में और शिष्यधीवृद्धिद में भी कपालयन्म और पीठ यन्त्र का उल्लेख साथ साथ है। जैसे सिद्धान्त शेखर में इदं भवेद्ध्वंशलाकमुव्र्यां स्थितं कपालं धृतिदिक् च चापम् । संसाधिताशं खलु चक्रयन्त्र पीठं भवत्यूध्वंशलाकमेव । मध्यस्थ कीलप्रभया विमुक्ताः प्रत्यगतास्ता घटिका निरुक्तः । पीठे तु सूर्योदय बिम्बवेधा भुक्तांशजीवा स्फुटमग्रका स्यात् । शिष्यधीवृद्धिद तन्त्र में । इदमैवोष्वंशलोकं भुवि स्थितं स्यात् कपालकं यन्त्रम् । चत चोध्र्वंशलाकं वदन्ति पीठं सुसिद्धाशम् ॥ अनयोः कीलच्छायामुक्ता घटिा वदन्ति वारुण्याः । पीठाकोंदयवेषादग्राश्चापांशकाश्चापि । इदानीं विशेषमाह । अथवा कपालके नाडिकादि सवं यया धनुष्युक्तम् । कर्तरि यन्त्र स्थूलं कृतं यतोऽन्येवंवामि ततः ॥४३॥ ॥
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