१४८० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते श्रीपतिनैवं कथ्यते । अस्यार्थः-संसाधिताशं चक्रयन्त्र (कृतदिक् साधनं पूर्वकथितंचक्रयन्त्र) ऊध्र्व शलाकमेव (उपरिगतलम्बमेव) पीठं (पीठ संज्ञक) यन्त्र भवेत् । पीठे यन्त्रे सूर्योदयबिम्बवेधात् (सूर्योदयसमये रविबिम्बवेधेन) भुक्तांशजीवा (भुक्तानामंशानां जीवा) ऽग्रका स्यात् । स्फुट (प्रत्यक्षमेव दृश्यते) मिति । अत्रोपपत्तिः । कृतदिक् साधनं वृताकारं पीठयन्त्र सूर्योदये सुर्याभिमुखं स्थापितं तेन पश्चिमबिन्दोर्यदन्तरेण छाया पतिता तदन्तरमग्रा चापशास्तज्ज्याङग्रा भवतीति यन्त्रस्थितिदर्शनेनैव स्फुटम् । शिष्यधीवृद्धिद तन्त्रे ‘चक्र चोध्र्वंशलाकं वदन्ति पीठं सुसिद्धाशम् । पीठाकदयवेधादग्राश्चापांशकाश्चापी ।।' ति लल्लोक्तमेव श्रीपत्युक्तस्य मूलमिति विज्ञविवेचनीयम् ॥४५॥ अब पीठ यन्त्र को कहते हैं । हि. भा.-दृष्टि की ऊंचाई के तुल्य प्रदेश में आकाशस्थ यष्टि व्यासार्बजनित चक्रा कार फलक करना चाहिये । परिधि में दिशा और भगणांश को अति करना चाहिये तथा परिधि के अग्रभाग में अग्राघटी को अङ्कित करना अर्थात् पीठ यन्त्र चक्राकार होता है । सिद्धान्तशेखर में ‘संसाधिताशं खलु चक्रयन्त्रं’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोक के अनुसार कहते हैं, इसका अर्थ यह है-पूर्वकथित चक्रयन्त्र जिसमें दिक्साधन किया हुआ है उपरिगत लम्ब ही पीठ संज्ञक यन्त्र होता है, पीठ यन्त्र में सूर्योदयकाल में रविबिम्ब‘ वेध से भुक्त अंशों की जीवा (ज्या) अग्रा है इति ॥४५॥ उपपत्ति । जिस में दिक्साधन किया हुआ है ऐसे वृत्ताकार पीठ यन्त्र को सूर्योदयकाल में सूर्याभिमुख स्थापन करने से पश्चिम बिंदु से जितने अन्तर पर आया पतित होती है वह अग्रानुषांश है उसकी ज्या अग्रा होती है, यह यन्त्रस्थिति की भावना ही सै स्फुट है । शिष्यधीवृद्धिदतन्त्र में ‘चक्र चोध्र्वंशलाकं वदन्ति पीठं' इत्यादि लल्लोक्त ही औपत्युक्ति की मूल है इसको विज्ञलोग विचार कर देखें इति ॥४५॥ इदानीं यन्त्रान्तरमाह। नलको मूले विद्धस्तत्यु तिघटिकोवृतः समुच्श्रायः । लब्धाङगुलैस्तु तैर्नाड़िका दिया यन्त्रसिद्धिरतः।४६।
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