१४८४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते इति, आचार्योक्त लल्लोक्त च श्रीपत्युक्तेर्दूलमिति प्रतीयते । लल्लोक्त मायत्रयं बहुत्रैवाशुद्धमिव प्रतिभाति न चास्य किमपि व्याख्यानं सम्यक्-दृश्यते । एतयो (आचार्य लल्लयोः) रनुरूपरचनस्य श्रीपत्युक्तस्य नितरामेवाशयोऽशुद्ध त्वान्नावगम्यते । इति. ४७-४८ ॥ अब पुनः यन्त्रान्तर कहते हैं । हि. भा.-अल्प विस्तार और ज्यादा देयं (लम्बाईवाला वस्त्र खण्ड (कपड़ का टुकड़ा) चीरी कहलाता है। एक घटी में मनुष्य के मुख (मुंह) से जितना बड़ा वस्त्र खण्ड जलस्राव (जल का निकलना) के आधात (पक्का) से बाहर निकलता है वह वटिकां गुल कहलाता है। धटिकांगुलान्तरस्थित एक दो-तीन आदि घटी से अङ्कित (चिन्हित) गुटिका (गोली) चीरी में देनी चाहिये। इस चीरी को नरा (मनुष्य) कार यन्त्र के नीचे के छिद्र में रखना चाहिये, जिससे चीरी नर के नीचे छिद्र से प्रविष्ट होकर नर मुख में स्थित तिर्यक्रूप कील के उपरिगत हो जाय । नर मुखाग्र में कील के ऊपर जो चीरी का खण्ड है उसके अग्र में पारे से भरे हुए तुम्ब (तुम्बी) को बांधं कर, उसमें नलक आदि से जलधारा देनी चाहिये जिस से नीचे जाती हुई तुभ्बी से घटिका में नरमुख से एक गुटिका ( गोली) बाहर चली जाय । एवं जलस्राव से नराकार यन्त्र घटिका से एक गुटिका को मुख बाहर फेंकता (निकालता) हैं । इस तरह नराकार यन्त्र की जगह में (कछुआ) आदि आकार का यन्त्र भी समझना चाहिये। सिद्धान्तशेखर में “चीर्णं प्रकुर्याद् घटिकांगुलाङ्का मैतेन मुक्त वा वदनेन घाय’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकानुसार श्रीपति कहते हैं। "घटिकाङ्कांगुल संख्यां बद्ध्वा चीय' इत्यादि विज्ञान भाष्य में,लिखित लल्लोक्त श्लोक और आचार्योंक्त ही श्रीपत्युक्ति का मूल है । लल्लोक्त तीनों लोक बहुत जगह अशुद्ध मालूम होते है। इनकी सम्यक् व्याख्या कहीं पर कुछ भी देखने में नहीं आती है। आचार्योनॅक्त और लल्लोक्त के 'अनुरूप श्रीपयुक्त का आशय अशुद्धता के कारण समझ में नहीं आता है इति ॥४७-४८। इदानीं विशेषमाह। जलप्यंकृत घटीभिः स्तनास्यकणविभिर्जलं क्षिपति । पुरुषोऽन्यस्यासक्त वचन ' पुरुषस्य कृतमुपरि ॥४e॥ ' सु. मा--पुरुषो (नराकारयन्त्रम्) रचनीयः। जलपूर्णाकृता घटी घटीयन्त्र मस्य स्तने मुखे कर्णादौ वाऽन्तस्था योज्या यथाऽयं पुरुषः स्तनास्यकर्णादिभि रन्यस्य प्रतिपुरुषस्य तदासक्ते वक्त्रे मुखे घटीमितेन कालेन जलं क्षिपति । एवमप्युषरि पूर्वश्लोके प्रतिपादितं यन्त्र प्रकारान्तरेण कृतं भवेदित्यर्थः ॥४९॥ १:ः पुरुषोऽन्यस्याऽसक्ते वक्त्रं पॅरुषस्य कृतमुपरि ॥४९॥
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