१५ ०७ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते तथा दिनमासवर्षपतयश्च ग्रहाणां मध्यमा गतिश्च सावनेनैव दिनेन गृह्यते इति । सूर्यसिद्धान्तकारेण कथ्यते ॥३-४ ॥ अब विशेष कहते हैं । हिभा–कृतादि(सत्ययुगादि)युगों की वर्षा संख्या सौरमान से ग्रहण करनी चाहिये । तथा वर्षाश्रित कार्यों को भी सौर मान ही से लेना चाहिये । विषुवत् (जब रवि का मेषादि में प्रवेश होता है तब उत्तर विषुवत्तुलादि में प्रवेश होने से दक्षिण विषुवव) सौर मान ही से समझना चाहिये । अयन भी (उत्तर और दक्षिण) (सूर्य की मकर संक्रान्ति से सौर छः महीना उत्तरायण होता है, ककं संक्रान्ति से सौर छः महीना दक्षिणायन होता है) सौर मान ही से ग्रहण करना चाहिये। ऋतु भी दो दो सौर महीनों से होता है अर्थात् मकर संक्रान्ति से दो दो राशियों का एक एक ऋतुनाथ होता है मकर और कुम्भ का शिशिरमीन और मेष का वसन्त, वृष और मिथुन का ग्रीष्म, कर्क और सिंह की वर्षा, कन्या और तुला का शरत्, वृश्चिक और धनु का हेमन्त, सिद्धान्तशेखर में ‘मृगादि राशिद्वयभानुभोगात् षट् चर्तवः ’ इत्यादि से श्रीपति ने कहा है । दिन और रात्रि की वृद्धि और हास (बढ़ना घटना) सौर ही से समझना चाहिये । तिथि करण (बवादि), अधिकमास (मलमास, अवमदिन, पर्वक्रिया (पूर्णान्तक्रिया-दर्शान्त क्रिया) ये सब चान्द्रमान से ग्रहण करना चाहिये। यज्ञ, पु सवनादिप्रमाण (द्रव्यदानादि में प्रमाण दिनादि), ग्रहों की वक्र अनुवक्र आदि गतियां, व्रत-उपवास, सूतक (जन्म-मरण सम्बन्धी अशौच), चिकित्सा (रोग प्रतीकार के लिये औष घि सेवन), प्रायश्चित्त (छुच्छुचान्द्रायणादि), ये सब सावनमान से समझता चाहिये । सिद्धान्तशेखर में ‘युगायनी प्रभृतीनि सौरान्मानाद्धूरायोरपि वृद्धिहानी' इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्रीपयुक्त आचार्योंक्त के अनुरूप ही है । सिद्धान्तशिरोमणि में "वषयनलैं युगपूर्वकमत्र सौरा’ इत्यादि भास्करोक्त आचार्योंक्त के अनुरूप ही है । सूर्यसिद्धान्त में ‘सौरेण द्युनिशोर्मानं षड़शीति मुखानि च । अयनं विषुवच्चैव संक्रान्तेः पुण्यकालता' ये सब प्रत्येक दिन संयंगतिभोग (सर) से उत्पन्न होते हैं । रवि केन्द्र जिस समय राश्यादि में जाता है। वह संक्रान्ति का मध्य काल कहलाता है । केन्द्र से पहले और पीछे जब तक रविबिम्ब कलातुल्य अन्तर होता है तबतक बिम्ब के एक प्रदेश के राश्यादि में संचार से संक्रान्ति काल होता है, उस काल के आनयन के लिये अनुपात करते हैं । यदि रवि गतिकला में साठ घटी पाते हैं । तो रवि बिम्बमानकला में क्या इस अनुपात से केन्द्राभिप्रायिकसंक्रांति से पहले और पीछे संक्रांतिघटी आती है। इस संक्रान्ति कालमें स्नान दानादि करने से अतिशय पुण्य होता है । ‘तिथिः करणमुद्वाहः क्षौरं सर्वक्रियास्तथा। व्रतोपवासयात्राणां क्रिया चान्द्रेण क्षु- झते ।” तिथि करण (बवबालव आदि) उद्वाह (विवाह), क्षौर (क्षुरकर्म), सर्वक्रिया (व्रत बन्धादिक), व्रत उपवास यात्रा सम्बन्धी क्रिया, ये सब चान्द्रमान से ग्रहण करनी चाहिये । "उदयादुदयं भानोः सावनं कल्कीfततस् । सावनानि स्युरेतेन यज्ञ काल विधिस्तु तैः" इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित श्लोकों का अर्थ यह है कि सावन दिनों से यज्ञकाल विधि करंनी
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