मानाध्यायः १५०३ भ्रमण जो होता है उसी को प्राचीन लोग नाक्षत्र दिन कहते हैं और पूणिमान्त में नक्षत्र योग से चन्द्रमासों की संज्ञा कहते हैं जैसे कृत्तिका के सम्बन्ध से कfतत । मृगशीर्षे के सम्बन्ध से मार्गशीर्ष (अग्रहण) । पुष्य के सम्बन्व से पौप । मघा के सम्बन्ध से माघ । फाल्गुनी के सम्बन्ध से फाल्गुन । चित्रा के सम्बन्ध मे चैत्र । विशाखा के सम्बन्ध से वैशाख । ज्येष्ठा के सम्बन्ध से ज्येष्ठ । आषाढ़ा के सम्बन्ध से आषाढ़ । श्रवण के सम्बन्ध से श्रावण । भाद्रपद के सम्बन्ध से भाद्रपद (भादों) । अश्विनी के सम्बन्ध से आश्विन । यदि पूणिमान्त में उपर्युक्त नक्षत्र न हो तब मासों की संज्ञा कैसे उचित होगी इस के लिये कहते हैं । कात्ति आदि मासों की पौर्णमासी में कृतिकादि दो दो नक्षत्र लेना चाहिये । जैसे कृत्तिका-रोहिणी के सम्बन्व से कातिक्र । मृगशीर्ष और आद्र के सम्बन्ध से मार्गशीर्षे । पुनर्वसु और पुष्य के सम्बन्ध से पौष । आश्लेषा और मघा के सम्बन्ध से माघ । चित्रा और स्वाती के सम्बन्ध से चैत्र । विशाख और अनुराधा के सम्बन्ध से वैशाख । ज्येष्ठा और मूल के सम्बन्ध से ज्येष्ठ पूर्वाषाढ़ और उत्तराषाढ़ के सम्बन्ध से आषाढ़। श्रवण और धनिष्ठा के सम्बन्ध से श्रावण । अवशिष्ट मासों के लिये कहते हैं, आश्विन-भाद्रपद और फाल्गुन के तीनों मास तीन नक्षत्र वश से होते हैं जैसे रेवती- अश्विनी-भरणी के सम्बन्ध से आश्विन । शतभिषपूर्वभाद्रउत्तर भाद्र के सम्बन्ध से भाद्रपद । पूर्वफल्गुनी-उत्तरफल्गुनी-हस्त नक्षत्रों के सम्बन्ध से फाल्गुन इस तरह निरयण नक्षत्रमानों से मासों की संज्ञा कही गई है। अथर्व वेद में भी ऐसी ही मासों की संज्ञा है । सायनमान वश से पूर्वकथित नक्षत्रों के सम्बन्धाभाव से मासों की संज्ञाओं में आपत्ति होती है इसलिये निरयणमान ही से व्यवहार उचित है-यही प्राचीन वैदिकों की सम्मति है इति ॥५॥ इदानों नवमानान्याह । मानुष्यदिव्यपिध्यब्राह्मण्यष्टावमुत्तंकालस्य । उक्तानि ज्ञानार्थं बार्हस्पत्यं नवममन्यत् ॥६॥ सु. भा–अमूर्तीकालस्याव्यक्तात्मककालस्य ज्ञानार्थं मानुष्यं मानचतुष्ट यम् । दिव्यं दैवं पित्र्यं ब्राह्ममन्यच्च बार्हस्पत्यमिति नवमानान्युक्तानीति ॥६॥ वि. भा–‘लोकानामन्तकृत् कालः कालोऽन्यः कलनात्मक:। स द्विधा स्थूलसूक्ष्मत्वान्मूर्तश्वामूर्त उच्यते’ इति सूर्यसिद्धान्तोक्तरिह ज्यौतिषसिद्धान्ते गणनात्मक काल एवामूर्तसंज्ञकःएतस्यामूर्तसंज्ञकस्याव्यक्तात्मककालस्य ज्ञानार्थं मानुष्यं मान (सौरमानस् । चान्द्रमानय । सावनमानघ । नाक्षत्रमानम्) चतुष्टयम् । दिव्यं मानं दैवं (प्राजापत्यं), पियं, ब्राह्म, अन्यद्वार्हस्पत्यमिति नव मानानि कथितानि सन्तोति । सूर्य सिद्धान्ते
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