ग्रहोपदेशाध्यायः १५३१ स्वल्पान्तरात् । सार्दष्टसंख्या ग्रन्थारम्भे क्षेपमानं तदुपपत्तिश्च ग्रन्थान्ते द्रष्टव्या अत उपपन्नं केन्द्रानयनम् ॥६॥ हि- भा.-दो से प्रति मास समूह को दो स्थान में रखो, एक स्थान में २५१ से भाग दो, लब्धि को दूसरे स्थान में जोड़ दो, फिर उसमें व+३ जोड़ दो, उस योग में २८ से भाग दो, जो शेष होगा वृहचन्द्रमा का केंद्र होता है । उपपति । एक चन्द्रभगण को २८ से विभाग करते असे . तव विभागजातीय केन्द्र यहां साधन करते हैं । कल्प में =। चन्द्रभगण=५७७५३३००००० चन्द्रोच्च भगण =४६८१०५८५८ । दोनों का अन्तर = ५७२६५१e४१४२=केन्द्र भगण । इसमें चान्द्रमास से भाग देने पर, एक चान्द्रमास | में भगणात्मक केन्द्र ५७२६५१९४१४२ __= १+ ३८३१८६४१४२ ५३४३३३००००० ५३४३३३०० ००० यह प्रयोजन नहीं है इसलिये भगण को छोड़कर भगण शेष को २८ से गुणाकर हार से भाग देकर लब्धि जो होगी वही अभीष्ट भगात्मक केन्द्र होगा, एक चान्द्र मास में १०६६०८६६४x४ =२ + २ + स्वल्पान्तर से । ग्रन्थारम्भ काल १३३५८३२५०००४ २५१ में व+३ क्षेप मान की उपपति ग्रन्थ के अन्त में देख । इससे केन्द्रानयन उपपन्न हुआ । 'T-– इदानीमिष्टमासादौ रव्यानयनमाह । चैत्राविमासगुणिते व नक्षत्रे क्षिपेत् सहस्रांशौ । घटिकैकावशयक्त साधेन फलेन सहित चें ॥ ७ ॥ सुः भाद् नक्षत्रे घटिकैज़ादायुक्त साधेनैकेन पलिंने ‘हिते च चैत्रादितो ये गतचान्द्रमासास्तैर्गुणिते चैत्राद्युद्वर्वी फलं क्षिपेतं तदेष्टमासादौ नक्षत्रादिको रविर्भवेत् । १f. अत्रोपत्ति: कल्परविभगणाः=४३२००००००० । कल्पचन्द्रमास--५३४३३३००००० भक्ता जातमेकस्मिन् चान्द्रमासे नक्षत्ररसकं रविमानम =४३२०००००००४२७-१४४००X३०००००४ -१४४०० ४. ४२७ ~वमान ५३४३३३dp००० ॥ १७८१११४ ३००००० ९ ५ १७६११६
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