शृङ्गोन्नत्युत्तराध्याय उपपत्ति । ११४३ जब रवि और चन्द्र का अन्तर तीन राशि से अल्प होता है तब शुक्लमान भी चन्द्र बिम्बार्ध से अल्प होता है अत: कर्ण सूत्र में शुक्लाङ्गुल को पश्चिमाभिमुख देकर वहां से स्वभासूत्र व्यासार्ध से परिलेख वृत्त करने से शुक्ल चन्द्रखण्डाकृति बनती है । जब वह अन्तर तुलादि तीन राशि में हो तब कृष्ण बिम्बर्धाल्प होता है उसके वश से पश्चिमाभिमुख युक्त है। एवं कक्यदि तीन राशियों में भी कृष्णचन्द्र खण्डाकृति होती है। मकररादि तीन राशियों में मास के चतुर्थचरण में शुक्ल शृङ्गोन्नति बनती है। वहां पूर्वाभिमुख शुक्ल संस्थान होता है। सिद्धान्त शेखर में ‘श्रादशदर सोदरेऽवनितले बिन्दु प्रकल्प्योष्णगु स्वाशायां' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से श्रीपति ने परिलेख प्रकार लिखा है । शिष्यधीवृद्धिद तन्त्र में ‘यच्चिह्न समभुवि भानुमान् स तस्मात् दातव्यः स्वदिशि भुजः’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोकों से लल्लाचार्योक्त प्रकार भी आचार्यो (ब्रह्मगुप्त)क्त प्रकार और श्रीपत्युक्त प्रकार तथा भास्करोक्त शृङ्गोन्नति प्रकार के समान ही है । सूर्य सिद्धान्त में ‘दत्वाऽर्क संज्ञितं बिन्दु ततो बाहु स्वदिङ मुखम्' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोकों से सूर्य सिद्धान्तकार ने परिलेख प्रकार लिखा है इसी तरह के परिलेख भास्करोक्त भी हैं लेकिन कोई भी प्राचीनाचार्योक्त प्रकार समीचीन नहीं है इति ॥२-६॥ इदानीं प्रकारान्तरेण परिलेखमाह । बाहुज्येन्दुदलगुणा कर्णबिभक्ता भुजान्यदिक् चन्द्र । करणभुजाग्रतश्चन्द्रमध्यतः पूर्ववच्छेषम् ॥७॥ सु. भा.-वा एवं वक्ष्यमाणं संस्थानं शुक्लसस्थानं ज्ञेयं । अभीष्टस्थाने केन्द्र प्रकल्प्य चन्द्रबिम्बं परिलिख्य दिशश्च प्रसाध्य ततः पूर्वश्ङ्गोन्नत्यध्यायविधिना बाहुज्या भुजा साध्या सा चन्द्रदलेन चन्द्रबिम्बाधेन गुणा कर्णेन विभक्ता सा चन्द्र चन्द्रबिम्बेऽन्यदिक् भुजा भवति । ततश्चन्द्रमध्यतश्चन्द्र केन्द्राद्भुजायतश्च कर्णसंस्थानं ज्ञेयम् । ज्ञाते कर्ण'संस्थाने शेषं पूर्ववत् ज्ञेयम् । अत्रोपपत्तिः । अत्र रवेर्यद्दिक् चन्द्रः स प्रथमं भुजः साधितो भुजाग्राञ्चन्द्र केन्द्रगता रेखा कोटिः । कोटिसूत्रमेव चन्द्रबिम्बे पूर्वापररेखा । कर्णसूत्रं च चन्द्र बिम्बपरिधौ कोटिसूत्राद् भुजविपरीतदिशि लग्नं तत्स्थानज्ञानार्थ चन्द्रबिम्बाधे भुज परिणीतस्ततः कर्णसंस्थानज्ञान सुगमम् ॥ ७ ॥ वि. भा-पूर्वोक्तपरिलेखश्लोकानामन्ते ‘एवं वा संस्थानम्’ इत्यस्ति एतस्यार्थ वा एवमग्रे कथितं शुक्लसंस्थानं बोध्यम् । इष्टस्थाने कमपि बिन्दु केन्द्र' मत्वा चन्द्रबिम्बं विलिख्य दिक्साधनं कृत्वा शृङ्गोन्नत्यध्यायोक्तविधिना भुजज्या (भुजा) साध्या सा चन्द्रबिम्बाधेन गुणा कर्णेन भक्ता तदा चन्द्र बिम्बेऽन्यदिक्
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