ग्रमानम्=गभ. ककु+-भशे, अत इदमगू’ कल्पभगणभक्त लब्धं य मानं स्यादर्थाद हर्गणो भवेत् । ततो रविज्ञानं सुगममेव ॥१६॥ अब अन्य प्रश्न को कहते हैं। हेि. भा.-रवि के इष्ट भगणादिशेष कब चन्द्रदिन में वा गुरुदिन में वा बुधदिन में होता है इसको जानकर जो राश्यादिरवि को कहते हैं वे कुट्टक को जानते हैं। अर्थात् भगणशेष से अहर्गणानयन के लिये प्रश्न है । कल्पना करते हैं अहर्गणमान=य । तब अनुपात करते हैं कल्पकुदिन में कल्पभगण पाते हैं तो अहर्गण में क्या इससे लब्ध गतभगण, शेष भगणशेष होता है इसका स्वरूप=**** ११७५ गभ ककु . गाभ + भश ककु = य । यहां ककु, कभ भाज्य, हारों से जो राशिद्वय होता है उसमें अधरराशि को कल्प भगण से भाग देने से शेष गत भगणमान होता है । लेकिन यदि अधिकाग्र = भशे उसका छेद = ककु । ऊनाग्र = ० । उसका छेद = कभ तब आचार्योक्त कुट्टक प्रकार से छेद घात तुल्य छेद में अग्र (शेष ) मान = ककु . गभ + भशे । इस अग्र को कल्पभगण से भाग देने से लब्ध य मान होता है वही श्रहर्गण है । अहर्गण ज्ञान से रवि का ज्ञान सुलभ ही है इति ।। १६ ।। इदानीमन्यं प्रश्नमाह ज्ञदिने यदंशशेषं विकलाशेषं कदा तदिन्दुदिने । भानोरथवा शशिनो यः कथयति कुट्टकज्ञः सः ।। १७ ।। सु. भा.-भानोरथवा शशिनश्चन्द्रस्य यदंशशेषं वा विकलाशेषे बुधदिने दृष्टं तदेव कदा चन्द्रदिने भवतीत्यस्योत्तर यः कथयति स एव कुट्टकज्ञ इत्यहं मस्ये । अस्योत्तरं १२ सूत्रेण स्फुटम् ।। १७ ।। वि. भा-भानोः (सूर्यस्य) शशिनः (चन्द्रस्य) यदंशशेष विकलाशेषं वा बुधदिने दृष्टं तचन्द्र दिने कदा भवतीत्यस्योत्तरं यः कथयति सः कुट्टक पण्डित इति ॥ विशेषात् वास्तीति ॥ १७ स्वकुट्टकगुणात् स्वभागहारहृतादित्यादिना स्फुटै
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