'अपृष्टस्तु नरः किञ्चिद्यो ब्रूते राजसंसदि । ।
न केवलमसम्मानं लभते च विडम्बनाम् ।। १६३ ॥
तब मयूर ने कहा--
'जो राजसमा में बिना पूछे जाने पर बोलता है, वह केवल असंमान ही नहीं पाता, उपहसित भी होता है।
देव, तथाप्युच्यते--
का सभा किं कविज्ञानं रसिकाः कवयश्च के।
भोज किं नाम ते दानं शुकस्तुष्यति येन सः ॥ १६४ ॥
तथापि भवनद्वारमागतः शुकदेवः सभायामानेतव्य एव ।'
महाराज, तथापि कहता हूँ-
भोजराज, क्या तो आपकी सभा है और क्या कविज्ञान है और रसिक कवि ही क्या हैं ? आपका दान भी क्या है, जिससे वह शुक संतुष्ट होगा? तो भी महल के द्वार पर आये शुकदेव को सभा में लाना ही चाहिए।
तदा राजा विचारयति शुकदेवसामर्थ्य श्रुत्वा हर्षविषादयोः पात्रमासीत् । महाकविरवलोकित इति हर्षः। अस्मैं सत्कविकोटिमुकुटमणये किं नाम देयमिति च विषादः । भवतु । द्वारपाल, प्रवेशय।'
तो राजा ने सोचा, शुकदेव के सामर्थ्य को सुनकर प्रसन्नता और दुःख- दोनों का अनुभव हुआ । महाकवि को देखा-इसकी प्रसन्नता और श्रेष्ठकवि मंडल के मुकुट मणि स्वरूप इसे दिया क्या जायगा---इसका दुःख । जो हो । द्वारपाल, कवि को भीतर लाओ, ( राजा ने आज्ञा दी) ।
तत आयान्तं शुकदेवं दृष्ट्वा राजा सिंहासनादुदतिष्ठत् । सर्वे पण्डितास्तं शुकदेवं प्रणम्य सविनयमुपवेशयन्ति । स च राजा तं सिंहा- सन उपवेश्य स्वयं तदाज्ञयोपविष्टः ।
फिर शुकदेव को आता देख राजा सिंहासन से उठ खड़ा हुआ । सब पंडित उस शुकदेव को प्रणाम करके विनय पूर्वक आसन देने लगे। राजा उसे सिंहासन पर बैठा कर स्वयम् उसकी आज्ञा से बैठा।
--. ततःशुकदेवः प्राह--'देव, धारानाथ, श्रीविक्रमनरेन्द्रस्य या दानलक्ष्मीस्त्वामेव सेवते । देवा मालवेन्द्र एव धन्यः नान्ये भभुजः, यस्य ते