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भोजप्रबन्धः


कालिदासादयो महाकवयः सूत्रबद्धाः पक्षिण एव निवसन्ति ।' ततः पठति--

'प्रतापभीत्या भोजस्य तपनो मित्रतामगात् ।
और्वो वाडवतां धत्ते तडित्क्षणिकतां गता' ॥ १६५ ॥

 तदनंतर शुकदेव ने कहा--'महाराज, धारा के अधिपति, श्रीविक्रम महाराज की जो दान लक्ष्मी है वह आपकी ही सेवा कर रही है। देव, धन्य केवल आप मालवाधिपति ही हैं, जिन आपके यहाँ कालिदास आदि महाकवि : डोरी में बँधे पक्षियों की भांति निवास करते हैं--अन्य धरती को भीगने । वाले राजा नहीं । फिर पढ़ा--

 भोज के प्रताप से डरकर तपनशील सूर्य 'मित्र' (सूर्य का अपर. पर्याय तथा सखा ) वन गया, "और्व' (च्यवन-पौत्र अग्निस्वरूप तेजस्वी भृगुऋषि जिन्होंने कालांतर में सगर को अग्नेयास्त्र दिया तथा सागर में रहने वाली वडवाग्नि ) ने वडवाग्नि का रूप लिया और विजली क्षणभर चमकने वाली बन गयी ( चंचला)।

 राजा--'तिष्ठ सकवे, नापरः श्लोकः पठनीयः ।।

'सुवर्णकलशं प्रादादिव्यमाणिक्यसम्भृतम् ।
भोजः शुकाय सन्तुष्टो दन्तिनश्च चतुःशतम् ॥ १६६ ॥

इति पुण्यपत्रे लिखित्वा सर्वं दत्त्वा कोशाधिकारी शुकं प्रस्थापयामास । राजा स्वदेशं प्रतिगतं शुकं ज्ञात्वा तुतोष । सा च परिषतसन्तुष्टा ।  राजा ने कहा--'हे सुकवि, रुकिये, दूसरा श्लोक न पढ़िए ।'  'संतुष्ट भोज ने अलौकिक मणियों से परिपूर्ण स्वर्ण कलश और चार सौ

दंती हाथी शुक को दिये ।'--यह पुण्यपत्र पर लिख कर और सब कुछ

देकर कोशाधिकारी ने शुक को विदा किया । शुक अपने देश चला गया यह जानकर राजा को तुष्टि हुई। --::--

 १३-भोजस्य काव्यानुरागः कतिपयकथा  अन्यथा वर्षाकाले वासुदेवो नाम कविः कश्चिदागत्य राजानं दृष्ट- वान् । राजाह--'सुकवे, पर्जन्यं पठ ।' अतः कविराह--


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  1. धुरि साधुः धौरेयः ।