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भोजप्रवन्धः


'नो चिन्तामणिभिर्न कल्पतरुभिर्नो कामधेन्वादिभिर्नो देवैश्व परोपकारनिरतैः स्थूलैन सूक्ष्मैरपि ।
अम्भोदेह निरन्तरं जलभरेस्तामुर्वरा सिञ्चतां
(१)धौरेयेण धुरं त्वयाद्य वहता. मन्ये जगज्जीवति ॥१९७।

 'राजा लक्षं ददौ।  दूसरी बार वर्षा ऋतु में एक वासुदेव नामक कवि ने आकर राजा का दर्शन किया । राजा ने कहा--'हे सुकवि, मेघ पर पढ़ो।' तो कवि ने कहा-

 आज यह जगत न तो चिंतामणियों, न कल्पवृक्षों और न कामधेनु आदि के कारण जीवित है और न परोपकार में संलग्न बड़े-छोटे अन्य देवों के कारण, हे जलदाता यह जीवित है निरंतर जल धाराओं में इस धरती को सींचकर उर्वरा बनाते धुराधारी तेरे धुरा को धारण करने के कारण । राजा ने लाख मुद्राएँ दीं।

 कदाचिद्राजानं निरन्तरं दीयमानमालोक्य मुख्यामात्यो वक्तुमशक्तो राज्ञः शयनभवनभित्तौ व्यक्तान्यक्षराणि लिखितवान्--

 'आपदर्थं धनं रक्षेत्'

 राजा शयनादुत्थितो गच्छन्मित्तौतान्यक्षराणि वीक्ष्य स्वयं द्वितीय चरणं लिलेख--श्रीमनामापदः कुतः ।

 अपरेधु रमात्यो द्वितीय चरणं लिखितं दृष्ट्वा स्वयं तृतीयं लिलेख- सा चेदपगता लक्ष्मीः '

 परेद्य राजा चतुर्थ चरणं लिखति--'सञ्चितार्थो विनश्यति ॥ १६८ ।। तो मुख्यामात्यो राज्ञः पादयोः पतति--'देव, क्षन्तव्योऽयं ममा- पराधः।।

 एक बार राजा को निरन्तर दान करते देख कुछ मुँह से कहने में असमर्थ मुख्य मंत्री ने राजा के शयन गृह की दीवार पर स्पष्ट अक्षरों में लिख, दिया-

 'आपत्काल निमित्त उचित है धन की रक्षा।'

  सोकर जागे राजा ने जाते हुए दीवार पर उन अक्षरों को देखकर स्वयं दूसरा चरण लिखा--'श्रीमन्तों पर भला कहाँ आपत् आती है.?'