सेना के वैभव को देख राज्यसुख से संतुष्ट विचार करता राजा उल्लास से परिपूर्ण हो बोला- 'मनोहर युवतियाँ, अनुकूल मित्र, अच्छे और प्रेममयी वाणी बोलने वाले बंधुगण और सेवक और चिघाड़ते हिन हिनाते हाथी और पानी दार घोड़े- ( मनोहर युवति, मित्र अनुकूल, प्रणय भाषी सद बंधु, सुभृत्य, मत्तगज- राज, पवन गति अश्व-)
इस प्रकार राजा श्लोक के तीन चरण कह गया, पर चतुर्थ चरण उसके मुख से न निकला तो सुनकर चोर ने पूर्ति कर दी-
'नेत्रबंद करने पर कुछ नहीं है ।' ( मूंदलो नयन, न फुछ अवशिष्ट ) ।'
(मूँदहुनयन कतहुँ कछु नाहीं-गो० तुलसीदास ।)
ततो ग्रथितग्रन्थो राजा चोरं वीक्ष्य तस्मै वीरवलयमदात् । ततस्तस्करो वीरवलयमादाय ब्राह्मणगृहं गत्वा शयानं ब्राह्मणमुत्थाप्य तस्मै दत्त्वा प्राह-'विप्र, एतद्राज्ञः पाणिवलयं बहुमूल्यम् अल्पमूल्येन न विक्रयम् ।' ततो ब्राह्मणः पण्यवीथ्यां तद्विक्रोय दिव्यभूषणानि पट्टदुकूलानि च जग्राह । ततो राजकीयाः केचनैनं चोरं मन्यमाना राज्ञो निवेदयन्ति । ततो राजनिकटे नीतः।
तब पद्य के पूर्ण हो जाने पर राजा ने चोर को देखकर उसे वीर-कंकण दिया । वह चोर वीर कंकण लेकर एक ब्राह्मण के घर पहुँचा और सोते. ब्राह्मण को जगाकर उसे कंकण देकर बोला-'विप्रवर, यह राजा के हाथ का कंगन है, यह बहुमूल्य है, थोड़े मूल्य पर न बेंचना तो ब्राह्मण ने हाट बाजार में उसे वेंचकर दिव्य आभूषण और रेशमी वस्त्र खरीद लिये। तो कुछ राज्य कर्मचारियों ने उसे चोर समझा और राजा से निवेदन किया। ब्राह्मण राजा के पास ले जाया गया।
राजा पृच्छति--'विटधार्ये पटमपि नास्ति । अद्य प्रातरेव दिव्य- कुंण्डलाभरणपट्टदुकूलानि कुतः ?' विप्रः प्राह-
भेकैः कोटरशायिभिर्मृतमिव क्ष्मान्तर्गतं कच्छपैः
पाठीनैः पृथुपङ्कपीठलुठनाद्यास्मिन् मुहुर्मूर्छितम् ।
तस्मिन् शुष्कसरस्थकालजलदेनागत्य तच्चेष्टितं
यत्राकुम्भनिमग्नवन्यकरिणां यूथैः पयः पीयते ॥ २०१ ।।