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भोजप्रबन्धः


ततो विष्णुकविः सोमनाथदत्तेन राज्ञा दत्तेन च तुष्टवान्। तदा सीमन्तकविः प्राह-

'वहति भुवनश्रेणीं शेषः फणाफलकस्थितां
कमठपतिना मध्ये पृष्ठं सदा स च धार्यते। ..

 तमपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोनिधिरादरा-

  दहह महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः ॥ २०७॥

 विष्णु कवि सोमनाथ और राजा द्वारा दिये हुए से संतुष्ट हुआ तो सीनंत कवि ने कहा--

 शेषनाग अपने फन के ऊपर रख कर, भुवन धारिणी धरणी का भार धारण करता है, कच्छपराज अपनी पीठ पर शेषनाग को धारता है, उसको जलनिधि सादर अपने गोद में रख लेता है । अहाहा, महज्जनों के चरित्र का ऐश्वर्य असीम होता है।


(१५) समाप्तेऽपि कोशे राज्ञा दानम्

 कदाचित्सौधतले राजानमेत्य भृत्यः प्राह--'देव, अखिलेष्वपि कोशेषु यद्वित्तजातमस्ति तत्सर्वं देवेन कविभ्यो दत्तम् । परन्तु कोशगृहे धनलेशोपि नास्ति । कोऽपि कविः प्रत्यहं द्वारि तिष्ठति । इतः परं कवि- विद्वान् वा कोऽपि राज्ञे न प्राप्य इति मुख्यामात्येन देवसन्निधौ विज्ञापनीयमित्युक्तम् ।'

 एक बार प्रासाद के नीचे राजा के पास आकर सेवक ने कहा-~'महा- राज, संपूर्ण कोशों में जो भी धन था, वह सब कवियों को दे दिया गया, कोशागार में अब धन का लेश भी नहीं है । प्रति दिन कोई न कोई कवि द्वार पर आ जाता है । अब से आगे कोई कवि या विद्वान् महाराज से न मिल पाये--मुख्य मंत्री जी ने आप से यह निवेदन करने को कहा है।'

 राजा कोशस्थं सर्व दत्तमिति जानन्नपि प्राह-'अद्य द्वारस्थं कविं प्रवेशय । ततो विद्वानागत्य स्वस्ति' इति वदन् प्राह--

, 'नभसि निरवलम्बे सीदता दीर्घकालं
त्वदभिमुखविसृष्टोत्तानचञ्चूपुटेन ।