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भोजप्रबन्धः

 राजा श्रुत्वापि तुष्टो न दास्यति । राजपुरुषः सह चर्चा कुर्वाण- स्तिष्ठति । ततः कविर्व्यचिन्तयत्--'किमु राजा नाश्रावि'।

 दूसरे दिन कुंडिन नगर से गोपाल नामक कवि आया और 'स्वस्ति' कहकर बोला-

 हे भोज, आपके चित्त में आकर दो वस्तुएँ तृण और कण के समान हो जाती हैं--क्रोध आने पर विरोधियों की सेना ( तृण तुल्य ) और प्रसन्न होने पर सुवर्ण का ढेर ( कण के समान ) ।

 यह सुनकर संतुष्ट हो कर भी राजा ने कुछ दिया नहीं, राजपुरुषों के साथ चर्चा करता रहा । तो कवि सोचने लगा-क्या राजा ने नहीं सुना?'

 ततः क्षणेन समुन्नतमेवावलोक्य राजानं कविराह--

'हे.पाथोद यथोन्नतं हि भवता दिग्व्यावृता सर्वतो
  मन्ये धीर तथा करिष्यसि खलु क्षीराधितुल्यं सरः ।
किन्त्वेष क्षमते नहि क्षणमपि ग्रीष्मोष्मणा व्याकुलः
  पाठोनादिगणस्त्वदेकशरणस्तद्वर्ष तावत्कियत् ।। २१४ ।।

 राजा कविहृदयं विज्ञाय 'गोपालकवे' दारिद्रयाग्निना नितान्तं

 दग्धोऽसि ।

 इति वदन् षोडशमणीननर्ध्यान् षोडतदन्तीन्द्रांश्च ददौ ।

 तदनंतर क्षण में राजा के ऊपर मुंह उठाते ही देख कर कवि बोला--

 हे जलद, आपने जैसे उमड कर दिशा को सब ओर से ढक लिया है उससे मैं समझता हूँ कि हे धीर आप सरोवर को क्षीरसमुद्र की भांति बना दांगे. परंतु ग्रीष्म ऋतु की गरमी से व्याकल ये मछलियां आदि प्राणी क्षण भर का विलंव भी नहीं सह पा रहे हैं, आप ही इनकी एक शरणस्थली हैं। तो कुछ बरसिए ।

 राजा ने कवि के हृदय का मर्म समझा और यह कहते हुए कि गोपाल कवि, तुम दरिद्रता की आग से पूर्ण तया दग्घ हो गये हो--,

 सोलह अमोल मणियाँ और सोलह गजराज उसे दिये।