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भोजप्रबन्धः

 राजा तस्यै रत्नपूर्णं कलशं प्रयच्छति । ततो लिखति भाण्डारिकः-

'भोजेन कलशो दत्तः सुवर्णमणिसम्भृतः ।।
प्रतापस्तुतितुष्टेन वृद्धाय राजसंसदि' ॥ २१६ ।।

 दूसरी वार श्री भोजराज के सिंहासन को सुशोभित करते समय द्वारपाल ने आकर कहा-'देव, जाह्नवी गंगा के तट पर रहने वाली एक विदुषी बूढ़ी, ब्राह्मणी द्वार पर है।' राजा ने कहा-'प्रविष्ट करो।' उसे आती देख राजा ने प्रणाम किया और वह 'बहुत दिन जीते रहो', यह कहकर बोली-

  राजाओं के सैन्यस्थलों में एक अनोखी भोज के प्रताप की अग्नि जल रही है, जिसमें प्रविष्ट होने पर शत्रु राजाओं के घर के आंगनों में तृण उग आते हैं।

 राजा ने उसे रत्नों से भरा कलसा दिया । तो भंडारी ने लिखा---

 राज संसद में अपने प्रताप की प्रशंसा करने पर संतुष्ट हुए भोज ने वृद्धा को स्वर्ण और मणि से पूर्ण कलश दिया।

 अन्यदा दूरदेशादागतः कश्चिच्चोरो राजानं प्राह-'देव, सिंहलदेशे मयां काचन चामुण्डालये राजकन्या दृष्टा, मालवदेशदेवस्य महिमानं बहुधा श्रुतं त्वमपि वदेति पप्रच्छ । मया च तस्या देवगुणा व्यावर्णिताः । सा चात्यन्ततोषाच्चन्दनतरोर्निरुपमं गर्भखण्डं दत्त्वा यथास्थानं प्रपेदे। देव गुणाभिवर्णनप्राप्तं तदेतद्गृहाण । एतत्प्रसृतपरिमलभरेण भृङ्गा भुजङ्गाश्च समायान्ति ।' राजा तद्गृहीत्वा तुष्टस्तस्मै लक्ष दत्तवान् ।

  एक वार दूर देश से आया कोई चोर राजा से बोला--'महाराज, मैंने सिंहल देश में भगवती चामुंडा के मन्दिर में एक राज-कन्या देखी। उसने मुझसे कहा कि मैंने मालव देश के राजा की बहुत महिमा सुनी है, तू भी बता। मैंने उसके संमुख महाराज के गुणों का वर्णन किया । वह अत्यन्त सतुष्ट हो चन्दन वृक्ष के मध्य भाग का एक अनुपम खंड मुझे देकर यथा- स्थान चली गयी । महाराज के गुणों का वर्णन करने से प्राप्त यह चंदन खंड महाराज स्वीकारे। इसकी सुगंध के प्रसार से भौंरे और सर्प आ जाते है।' राजा उसे लेकर संतुष्ट हो चोर को लाख मुद्राए' दी।

 ततो दामोदरकविस्तन्मिषेण राजानं स्तौति-